बिहार

bihar

ETV Bharat / state

'समझौते' की बुनियाद पर नीतीश सरकार, तो क्या बिहार में भी होगा बदलाव? - विकास

कर्नाटक, उत्तराखंड, गुजरात और अब पंजाब में मुख्यमंत्री को बदल दिया गया है, लेकिन क्या बिहार में ऐसी कोई तस्वीर देखने को मिल सकती है? राजनीतिक कहते हैं कि ऐसा शायद ही हो, क्योंकि दूसरे राज्यों में राजनीतिक जवाबदेही बढ़ी है. ऐसे में वहां की जनता विकास पूछ लेती है लेकिन बिहार में यह बातें इसलिए नहीं लागू होती कि विकास की जब भी बात शुरू होती है जाति की राजनीति (Caste Politics) को नेता विकास के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं.

बिहार में भी होगा बदलाव
बिहार में भी होगा बदलाव

By

Published : Sep 19, 2021, 6:01 PM IST

Updated : Sep 19, 2021, 7:27 PM IST

पटना:राजनीति में जरूरत का समझौता (Compromise in Politics) ही सबसे बड़ा बदलाव होता है. दल चाहे जो हो, राजनीति की दलील एक ही है और वह जरूरत के समझौते से राजनीतिक विकास कर ले और यही विकास की मूल परिभाषा भी है जोकि पार्टी और सरकारों के अनुसार चलती है. प्रसंग आज इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि देश में राजनैतिक दल जिस तरीके का हथकंडा अपनाएं हैं, उसमें दूसरे राज्यों में भले ही बदलाव विकास का पैमाना हो और विकास न करने वाले राजनीतिक दलों के मुखिया बदले जा रहे हैं. बिहार में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है.

ये भी पढ़ें: जायसवाल का नीतीश पर तंज- 'मैटेरियल तो कोई भी हो सकता है, लेकिन PM सिर्फ एक'

बिहार में समझौते की राजनीति ही विकास है और विकास के लिए समझौते की राजनीति बिहार की बुनियाद बन गई है. इससे आगे ना बिहार जाता दिख रहा है और ना ही आगे जाने की कोई संभावना है. जिसमें पार्टी को नहीं संभाल पाने वाले और ढंग से काम नहीं करने वाले मुख्यमंत्रियों को बदला जा रहा है. बीजेपी में यह शुरुआत नरेंद्र मोदी के गुजरात से हटने के बाद शुरू हुई, जब आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन काम सही ढंग से नहीं हुआ या जो काम का सही ढंग होता है उसे कर पाने में आनंदीबेन सफल नहीं रहीं तो उन्हें बदल दिया गया. हालांकि उसके बाद जिन्हें गद्दी दी गई, वह भी अपने उतने सफल नहीं रहे और कुछ ही दिन पहले गुजरात में एक और बदलाव कर दिया गया.

चलिए यह भी माना जा सकता है कि गुजरात और बदलाव की एक बानगी के तहत हो लेकिन मध्यप्रदेश में जिस तरीके से सत्ता बदली गई है, वह भी राजनीतिक इतिहास में एक कहानी के तौर पर है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस के भीतर जिस तरीके की खींचतान थी, वह इतनी आगे गई कि उसके दो सिपाही एक ने अपनी गद्दी गंवा दी और दूसरा केंद्रीय मंत्री बन गया. राजस्थान में भी कांग्रेस का विवाद छुपा नहीं रहा. बीजेपी भी इसमें राजनीति के हर पत्ते बिछा दिया. बदलाव की परिपाटी में उत्तराखंड ने एक ऐसी कहानी लिख दी है, जिसके हर पन्ने या तो अधूरे हैं या तो आगे लिखे जाएंगे.

ये भी पढ़ें: राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पाने के लिए JDU ने बदली रणनीति, 'सेवन सिस्टर्स' राज्यों पर किया फोकस

यह बताए जा रहे हैं कि कांग्रेस को जिस तरीके से पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने स्थापित किया और जिस तरीके से विदाई हुई, यह भी पार्टी के विकास और विकास के लिए हो रही सियासत का सबसे बड़ा नमूना भी कहा जा सकता है. तो देश में चल रहे राजनीतिक दल जिनकी पार्टियां सरकार बना रही है या फिर सरकार चला रही हैं, उनमें बदलाव की जो परिपाटी है वह विकास की बुनियाद के साथ दूसरी जगह भले दिखे, लेकिन बिहार में यह पूरा फॉर्मूला ही आकर बिखर जाता है.

सवाल इसलिए उठ रहा है कि बिहार में चल रही सरकार जब विकास के पैमाने की कसौटी पर कसी जाती है तो हर कोई 20 साल पहले जो सरकार थी, उसकी दुहाई देता है. क्योंकि 2005 के बाद जो सरकार बिहार में चल रही है उसके द्वारा किए गए विकास की बात जब भी सामने आती है तो दुहाई 20 साल पहले की हो जाती है. यहां पर डबल इंजन की चल रही सरकार सिर्फ समझौते की राजनीति पर दिखती है.

विकास की राजनीति और बदलाव की सियासत जमीन पर उतरती नहीं दिख रही है. यहां पर सियासी मापदंड पूरे तौर पर फेल हो जाता है. चाहे बात बीजेपी की हो या कांग्रेस की, आरजेडी की हो या जेडीयू की, बिहार एक ऐसा राज्य है जहां विकास की सियासत हमेशा किनारे पर रही. हाशिए पर रहने वाली राजनीति विकास की कहानी कह रही है.

ये भी पढ़ें: कन्हैया कुमार को नए आशियाने की तलाश, थामेंगे राहुल गांधी का 'हाथ'?

देश के जिन राज्यों में बीजेपी ने मुख्यमंत्री बदले, उन्हें कहा गया कि विकास नहीं हो रहा है. विकास की छटपटाहट भी बीजेपी के भीतर बहुत ज्यादा है. उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े सवाल के रूप में था, लेकिन बदलाव इसलिए यहां नहीं किया गया क्योंकि 2022 में होने वाला चुनाव उत्तर प्रदेश में क्या बदलेगा इस पर कोई सियासी पंडित भी कुछ खुलकर बोलने को तैयार नहीं है. गुजरात और उत्तराखंड बीजेपी के लिए प्रयोगशाला बन गए. पंजाब की राह पर चलकर कांग्रेस ने भी अपने पत्ते खोल दिए. छटपटाहट सभी राजनीतिक दलों के बीच है कि विकास जनता के बीच लेकर जाना होगा. अगर नहीं गए तो जनता नकार देगी. यह तो वह चेहरा है जो पार्टियां सामने रखना चाह रही हैं, लेकिन बिहार में आकर के यह पूरा फार्मूला ही फेल हो जाता है.

बात बिहार की करें तो डबल इंजन की सरकार बिहार में चल रही है. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के झगड़े के एक छोटे से कार्यकाल को छोड़ दें तो बीजेपी (BJP) और जेडीयू (JDU) साथ-साथ है. बिहार में राजनीतिक दलों का भरण पोषण भी खूब हुआ. आज की तारीख में दोनों राजनीतिक दल कुपोषण का शिकार नहीं हैं, लेकिन पूरे बिहार के बच्चे कुपोषित हो गए हैं. यह केंद्र सरकार की रिपोर्ट में ही आया है.

सभी राजनीतिक दलों के वोट बैंक में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन बिहार का सीडी रेशियो (CD Ratio) नीचे चला गया है. राजनीत की खेती में लहलहाती फसल सभी राजनीतिक दलों ने काटा है. वह किसान क्रेडिट कार्ड (Kisan Credit Card) के नाम पर सभी राजनीतिक दलों के उत्तर किनारे झांकने वाले हैं. अब विकास की इस परिपाटी को अगर बदलाव की कसौटी में कसा जाए तो पूरी राजनीति समझौते पर आ जाती है. नेताओं के सुर बदल जाते हैं, बोली जाने वाली भाषा बदल जाती है क्योंकि गद्दी किसी भी तरीके से अपने पास बनी रहनी चाहिए और बिहार में इसी सियासत को सभी राजनैतिक दल जगह दे रहे हैं. खासतौर से 15 सालों से गद्दी पर काबिज नीतीश कुमार की वह विकास वाली बात, जिसमें अब डबल इंजन की सरकार भी इन तमाम चीजों को कम कर पाने में लगभग फेल ही है, क्योंकि-

  • कुपोषण घटा नहीं
  • सीडी रेशियो बढ़ा नहीं, और
  • किसान क्रेडिट कार्ड किसानों को मिला नहीं.

ऐसे में जब विकास के नाम पर बदलाव की बात आती है तो बिहार समझौते की सियासत में चली जाती है, क्योंकि बिहार में समझौते की सियासत 1990 से लालू के पीछे बैठी कांग्रेस और नीतीश के साथ चल रही बीजेपी दोनों लगभग लगभग एक ही नाव के दो सवार हैं. बिहार के हिस्से अगर कुछ आया है तो बस आंकड़ों में पिछड़ते बिहार की कहानी. बात अपराध की कर लें तो देश में बिहार में अपराध भी कुछ कम नहीं हो रहा है. जनता ने अपने लिए रहनुमाओं को चुना था, जो बिहार को विकास की डगर पर ले जाएंगे लेकिन यहां तो अपने विकास को ही सारे लोग खोजते फिर रहे हैं.

ये भी पढ़ें: चिराग पर NDA में तकरार, जीवेश मिश्रा ने बताया पार्टनर तो उपेंद्र कुशवाहा ने जताया एतराज

देश के राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि दूसरे राज्यों में राजनीतिक जवाबदेही बढ़ी है. ऐसे में वहां की जनता विकास पूछ लेती है. बिहार में यह बातें इसलिए नहीं लागू होती कि विकास की जब भी बात शुरू होती है जाति की राजनीति (Caste Politics) को नेता विकास के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं. इससे आगे बिहार जा नहीं पा रहा है. यही वजह है कि कई इंजन की सरकार भी बिहार को विकास की डगर पर नहीं ले जा पा रही है.

उत्तर प्रदेश में 2022 में चुनाव है. गुजरात भी चुनाव की अंगड़ाई ले रहा है. पंजाब में भी बदलाव कहा जाएगा. उत्तराखंड की सियासत भी अपने लिए नए राजनैतिक मापदंड कर रही है, इसलिए हर जगह बदलाव की बात की जा रही है. बस बिहार जो बाढ़ से डूब कर तबाह है, जहां की शिक्षा व्यवस्था गंगा की नदी में बढ़ गया है. कुपोषण देश में सबसे ज्यादा है. अपराध सिर चढ़कर बोल रहा है. बैंक सीडी रेशियो और प्रति व्यक्ति आय के मामले में सीडी हो रखा है, उसके लिए विकास की न कोई परिभाषा है और न बदलाव की कोई सियासत. यहां तो बदलाव बस समझौते की राजनीति है और समझौते की सियासत ही बिहार के राजनीतिक अधिकार.

ऐसे में सोचना सियासतदानों को है और बिहार को भी, क्योंकि जो बदलाव पूरे देश में दिख रहा है, जिस दिन बिहार ने इस बदलाव के लिए ठान लिया और जनता ने आवाज उठा दी तो फिर कितने इंजन बेपटरी हो जाएंगे यह कहना मुश्किल है. जानता तो हर कोई राजनेता है लेकिन कुछ करता नहीं. यही बिहार की सबसे बड़ी मुश्किल है.

Last Updated : Sep 19, 2021, 7:27 PM IST

ABOUT THE AUTHOR

...view details