पटना: देश का अन्नदाता सड़क पर है. कहीं पर हक के लिए विरोध करने के लिए सड़क पर है, तो कहीं अपनी पूरी जिंदगी की मेहनत के पसीने से मिट्टी को भिगो देने के बाद भी दो जून की रोटी और साफ पानी के लिए जद्दोजहद करने वाला किसान सड़क पर है. हक की जिस लड़ाई को अलग-अलग राजनीति के रंग से जोड़ कर देखा जा रहा है. उसमें किसानों की पीड़ा और दर्द की ये कथा कोई आज की नहीं है, ये दर्द अंतहीन है और सफर बहुत पुराना है.
देश में किसान आज सरकार से कुछ मांग रहा है. बिहार के दामन ने किसानों के इसी दर्द को जब बाहर निकाला था तो चम्पारण ने पूरे विश्व के फलक पर बदलाव की कहानी लिखी थी. किसानों के आंदोलन ने ब्रिटिश हुकूमत के जड़े हिला दी. चम्पारण सत्याग्रह जो 10 अप्रैल 1817 को बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी के आने से शुरू हुआ था, उसने देश के दामन से गुलामी प्रथा को खत्म करने को दिशा दी थी. लम्बी लड़ाई के बाद देश गणतंत्र हो गया. किसानों के आंदोलन ने बदलाव को दिशा दी लेकिन किसान फिर उसी मिट्टी में अपनी किस्मत का गुलाम हो गया और दो जून की रोटी के लिए तीनों पहर के संघर्ष की कहानी किसानों की नियती बन गयी, जिसमें उनकी पूरी जिंदगी पिसती जा रही है.
चम्पारण की यात्रा के बाद गांधीजी ने अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' के पांचवें भाग के 12 वें अध्याय 'नील का दाग' में कहा है कि किसानों की पीड़ा का एहसास लखनऊ में नहीं था, लेकिन जब समझा तो मन बहुत रोया. बिना खाए किसान लोगों के पेट को भरने में लगा रहा है. सवाल यही उठ रहा है जिसके बिना कुछ भी चल ही नहीं सकता उसकी मांग को पूरा करके किसानों के मन को भरने का काम आखिर सरकार कर क्यों नहीं रही है.
दो गुनी कमाई का तीन गुना दर्द
2013 में नरेन्द्र मोदी देश में चल रही तत्कालीन यूपीए 2 की सरकार को घेरने और अपने लिए दिल्ली में सल्तनत का निजाम बनने के लिए मुद्दे गढ़ रहे थे, तो गांधी के विचार, लोहिया के सिद्वांत और जेपी की जयकारे खूब लगाए. कह भी दिए किसानों की आय दो गुनी होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए. जवाब भीड़ ने भले न दिया हो लेकिन वोट इतना दिया कि उम्मीद जीत गयी. एक पांच साल चली सरकार ने किसानों को दो गुना कमाई नहीं दी. लेकिन दूसरी बार एमएसपी और दूसरी सुविधा से किसानों को जोड़ने की कोशिश तो हुई. लेकिन आज किसान जिस आंदोलन को देश के सामने रख रहा है उसमें दो गुनी कमाई और इसे करने के लिए की गयी सरकारी और राजनीतिक पढ़ाई आखिर हार क्यों रही है.
किसानों की पीड़ा और आंदोलन आज इस बात को लेकर सड़क पर है कि केन्द्र की सरकार किसान कानून में एमएसपी को लेकर पत्र जारी कर दे कि ये चलता रहेगा. सरकार को एमएसपी देनी है ये राजनीति में बोली जानी वाली भाषा की ईमानदारी है. लेकिन मन की ईमानदारी इससे अलग है और इसलिए किसान नाराज है. सवाल यही उठ रहा है कि आखिर जब एमएसपी को चालू रखना है तो सरकार को दिक्कत क्या है.
जमीन पर लोन, कान्ट्रैक्ट फार्मिंग, सरकारी अनुदान और राजनीतिक झुनझुना
सरकार और किसानों के बीच जो लड़ाई मची हुई है उसमें राजनीति और नियम को न समझने वाले किसान कई मुद्दो पर चर्चा कर रहे हैं.
- किसानों को नए कृषि बिल से एक नहीं कई मुद्दों पर संघर्ष करना पड़ रहा है. किसानों को उद्यमी बनाने के बड़े वादे में आज सरकार को किसानों को नीलामी के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया है. जमीन के मैपिंग के कार्य को करवाया जा रहा है. किसानों की जमीन उनके नाम पर हो जाएगी और किसान जमीन पर लोन ले सकता है. सवाल यही है कि आखिर किसान को लोन देने के लिए सरकार इतना आतुर क्यों है.
- किसानों के लिए सरकार की दूसरी बड़ी नीति कान्ट्रैक्ट फार्मिंग की है. किसान अपनी जमीन किसी निजी कंपनी को देकर खुद को मजदूर बनाकर मजबूरी में वह सब कुछ करे जो मल्टीनेशनल कंपनियां उसकी जमीन पर चाहेगी.
- किसानों के लिए सरकार की सबसे बड़ी योजना किसानों को अनुदान के रूप में मिलने वाली 6 हजार की राशि है. जो किसानों को केन्द्र सरकार दे रही है. सवाल यह उठता है कि अगर किसान अपनी खेती करेगा नहीं तो उसको मदद किस बात की दी जाय.
यह चर्चा बिहार की गलियों में है, सड़क पर है चम्पारण की हवा में है. बिहार भी विरोध के साथ जुड़ रहा है लेकिन आज भी सरकार की योजना जिस तरह से बिहार के किसानों को मुंह चिढ़ाती है. वह ठगा हुआ अपनी खेत की मेड़ पर बैठकर नए भारत का सपना देख रहा है, जिसमें बाकी सब जीत जाएगा बस किसान हार जाएगा. जय किसान की बजाय नारा कुछ और होगा