पद्मश्री सामाजिक कार्यकर्ता सुधा वर्गीज की कहानी पटना: दुनिया भर में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Womens Day) के रूप में मनाया जाता है. आजतक महिलाओं ने कई मिसाल खड़ी की है, वह दूसरी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बनी हैं. 8 मार्च 1910 से ही महिलाओं के समस्याओं को देखते हुए महिला दिवस मनाया जाता है, कई महिलाओं ने काफी संघर्ष करके समाज को एक नया रूप दिया है हालांकि शुरुआती दौर में उन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा है. इन सभी के बावजूद महिलाएं अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ती रहीं. ऐसी कहानी है एक महिला कि जो गरीब और असहाय बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगाने के लिए केरल से बिहार पहुंच गई. कभी पैदल घूम-घूम कर तो कभी साइकल से बच्चों को शिक्षा देने का काम किया है. सुधा वर्गीज को 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों पद्मश्री दिया गया.
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केरल से तय किया बिहार का सफर: बता दें कि केरल की रहने वाली सुधा वर्गीज ने किशोरावस्था में ही बिहार की शिक्षा व्यवस्था को देखते हुए संकल्प लिया कि मैं अब बिहार जाऊंगी और वहां के गरीब और असहाय बच्चों में के बीच शिक्षा देने का काम करूंगी. महज 14 से 15 साल की उम्र में ही सुधा वर्गीज केरला के कोट्टायम से पटना पहुंच गई. उन्होंने गरीब बच्चों के बीच शिक्षा देने का काम शुरू किया. उन्होंने साफतौर से कहा कि जब मैं पटना पहुंची तो मुझे पता चला कि महादलित जाति होती है. वह काफी दूर तक पैदल चलती हैं और गरीब बच्चों के बीच शिक्षा का ज्ञान देती हैं साथ ही उन्हें स्कूल जाने को प्रेरित करती रहती थी. उन बच्चों को अपने अधिकार का भी ज्ञान देती रहती थी. जब वह पैदल चलते चलते थक जाती हैं तो कहीं बैठकर थोड़ा आराम कर लेती और फिर चलना शुरू कर देती. उन्होंने कभी अपने जीवन में हार नहीं माना और निरंतर शिक्षा का अलख जगाने के लिए चलती रही और इन्हें इस क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया.
50 वर्ष पहले आई थी बिहार: पद्मश्री सुधा वर्गीज का कहना है कि मैं जब आज से लगभग 50 वर्ष पहले आई थी तो शिक्षा का स्तर काफी नीचे था. बच्चे स्कूल नहीं जाते थे जिसके बाद मैंने सबसे पहली बार पटना से महादलित बच्चों के बीच से शिक्षा का अलख जगाना शुरू किया. सभी बच्चों को स्कूल भेजना, अपने अधिकार के विषय में बताना साथ ही महिलाओं को भी प्रेरित करना कि अपने बच्चों को स्कूल भेजें. शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण होती है. सुधा वर्गीज का साफ तौर से कहना था कि बच्चियों के हाथ में खुरपी-हंसुआ की जगह किताब देखना उन्हें काफी अच्छा लगता था. जब वह किशोरावस्था में ही थी तो उन्होंने तय कर लिया था कि मुझे शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों को काफी आगे बढ़ाना है.
साइकिल से जाती थी 50 किलोमीटर: उन्होंने साफ तौर से कहा कि मैंने जब शुरुआती दौर में अपना काम शुरू किया था तो मुझे कई तरह के सामाजिक प्रताड़ना मिली, लोगों के द्वारा धमकी भी दी जाती थी लेकिन महिलाओं ने मुझे काफी सहयोग दिया. मैं 50 किलोमीटर साइकिल से बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रसर करने के लिए जाती थी. वहीं सुधा वर्गीज को साइकिल गर्ल के नाम से भी जाना जाता है. उनके लिए सबसे खुशी का पल 2006 में रहा जब तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उन्हें विश्वास नहीं था कि कभी पद्मश्री मिल सकता है लेकिन जब 2006 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया और एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों यह पद्मश्री लेकर अपने आप को काफी गौरवान्वित महसूस करती हैं.
"मैं जब आज से लगभग 50 वर्ष पहले आई थी तो शिक्षा का स्तर काफी नीचे था. बच्चे स्कूल नहीं जाते थे जिसके बाद मैंने सबसे पहली बार पटना से महादलित बच्चों के बीच से शिक्षा का अलख जगाना शुरू किया. सभी बच्चों को स्कूल भेजना, अपने अधिकार के विषय में बताना साथ ही महिलाओं को भी प्रेरित करना कि अपने बच्चों को स्कूल भेजें. शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण होती है. बच्चियों के हाथ में खुरपी-हंसुआ की जगह किताब देखना मुझे काफी अच्छा लगता था. जब मैं किशोरावस्था में ही थी तो मैंने तय कर लिया था कि मुझे शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों को काफी आगे बढ़ाना है."-पद्मश्री सुधा वर्गीज, सामाजिक कार्यकर्ता