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बिहार और वामपंथ- गेरूआ हो गया 'लेनिन ग्राम' का लाल सलाम

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Published : Oct 6, 2020, 1:38 PM IST

Updated : Oct 6, 2020, 2:30 PM IST

बिहार में आजादी के बाद की राजनीति को देखा जाय तो वाम दल की सियासी दखल में तूती बोलती थी. बिहार ही नहीं देश की बात जाय तो वाम दल अपने मजबूत जमीनी कैडर के बदौलत देश की सत्ता में अपनी हनक रखता था. लेकिन हर बार बदले राजनीतिक आधार और आवसरवादी राजनीति ने राष्ट्रीय स्तर पर वाम दल की राजनीति की नकार दिया.

लेनिन ग्राम का लाल सलाम
लेनिन ग्राम का लाल सलाम

पटना:बिहार में वाम दल अपनी राजनीतिक जमीन पर सियासी बुनियाद का आधार ही खोजता रह गया. इसकी एक नहीं कई वजह हो सकती है. लेकिन सबसे बड़ी वजह जनता के मुद्दों से दूर होती वाम दल की राजनीति निहायत हित खोजने वाले आधार से जुड़ गया और यह जनता के बीच खुलकर सामने भी आ गया. इस दुर्दशा के लिए वामपंथी दल स्वयं भी जिम्मेवार रहे हैं. अपने वास्तविक मुद्दों से दूर हुए हैं और कई बार वामदलों में एकता की कोशिशें नाकाम होने के कारण भी उनकी साख घटी है.

बिहार में आजादी के बाद की राजनीति को देखा जाय तो वाम दल की सियासी दखल में तूती बोलती थी. बिहार ही नहीं देश की बात जाय तो वाम दल अपने मजबूत जमीनी कैडर के बदौलत देश की सत्ता में अपनी हनक रखता था. लेकिन हर बार बदले राजनीतिक आधार और आवसरवादी राजनीति ने राष्ट्रीय स्तर पर वाम दल की राजनीति की नकार दिया.

मनमोहन सरकार में वामपंथी पार्टियो की थी अहम भूमिका
राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो 2004 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल मनमोहन सिंह की सरकार के गठन में दूसरी पार्टियों के साथ-साथ वामपंथी पार्टियो की भी बेहद अहम भूमिका थी और इसे एक जुट करने में राजद सुप्रीमों लालू यादव का काफी अहम योगदान रहा. 2004 में वामपंथी दलों को 59 सीटें थीं. सन 2009 के चुनावों में ये कम होकर 24 रह गईं वजह साफ है कि जिस कांग्रेस की नीतियों के विरोध के बदौलत वाम दल की जमीन मजबूत हुई थी. उसी के साथ जाकर उन्हाने जनता के बीच अपनी छवि खराब कर ली. यहां से वाम दल की कमर ही टूट गयी और कांग्रेस की नीतिगत राजनीति भी यही थी. वाम दल की सीट संख्या घटी और यूपीए 2 में लालू यादव को जगह ही नहीं मिली. वहीं, 2014 में बीजेपी के आधार और नरेन्द्र मोदी की आंधी में यह आधी होकर सिर्फ 12 ही रह गईं.

पूर्व पीएम मनमोहन सिंह (फाइल फोटो)

किंगमेकर की भूमिका में था वामदल
बिहार की सियासत में एक वह भी दौर था, जब वामपंथी दल की तूती बोला करती थी. बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलों से हुआ करते थे. 1972 के विधानसभा में सीपीआई मुख्य विपक्षी दल थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता हुआ करते थे. मार्क्‍सवादी कम्‍युनिष्‍ट पार्टी (सीपीएम) और भाकपा माले के भी कई विधायक हुआ करते थे. 1991 में सीपीआई के आठ सांसद थे. बिहार में वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी और इसमुददे पर जनता उनपर भरोसा भी करती थी.

किंगमेकर की भूमिका में रही है वाम दल

1969 से टूटने लगाा आधार
बिहार में वाम दल अपनी नीतियों के कारण मजबूत होने के बाद भी सियासत के किनारे होने लगा. मुददों की राजनीति के बजाय जरूरत की राजनीति को वाम दल जगह देने लगी और यहीं से वम दलों से जनता का मोह भंग होने लगा. 1969 में बिहार मध्यावधि चुनाव हुए और इसमें किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. जनसंघ और सीपीआई के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे. सीपीआई ने बीच का रास्ता अपनाया और अपना समर्थन देकर दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनवा दी. बिहार की राजनीति में वाम दल के इस बदले रवैये ने बिहार की वामपंथी राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया. इसके बाद तो सीपीआई ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया और कांग्रेस की पिछलग्गू होकर अपनी राजनीति का हित साधने लगी.

बिहार में वामपंथी दलों का चुनाव में प्रदर्शन

साल सापीआई सीपीएम सीपीआई(माले)
1990 23 6 7
1995 26 6 6
2000 2 2 5
2005 3 1 7
2005 3 1 5
2010 1 0 0
2015 0 0 3


जेपीवाद से भटकी बुनियाद
बिहार में 1972 के विधानसभा में सीपीआई मुख्य विपक्षी दल थी, भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ वाम दलों ने अपने जमीन और जनाधार की राजनीति को खडा किया था. बिहार में वाम दलों की राजनीति को जगह मिलती थी लेकिन 1975 मेंं जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को नयी दिशा दी और बिहार में एक राजनीतिक क्रांति आ गयी. इंदिरा के साथ खड़ी भकापा ने जेपी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी आंदोलन कह दिया जिसका बहुत बड़ा घाटा वाम दलों को उठाना पड़ा.

जयप्रकाश नारायण (फाइल फोटो)

मंडलवाद ने तोड़ दिया आधार
जेपी के आंदोलन के विरोध में खड़े होकर वाम दलों ने अपने लिए वैसे ही जनता में विश्वास से अलग हो गयी थी रही सही कसर 1979 में मंडल कमीशन के बाद निकले मंडलवाद ने खत्म कर दिया. मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर राजनीति की ऐसी फसल बोया कि उसे वे इसी अधार पर अबतक जमकर काटने का काम कर रहे हैं. कर्पुरी ठाकुर, लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान जैसे नेताओं ने बिहार में दलित और ओबीसी को लिए सामाजिक नारा बुलंद किया. जिसकी में वाम दल की सियासात हवा हो गयी. लालू यादव के सामाजिक न्याय की राजनीति ने वाम दलों का पूरा वोट बैंक ही तोड़ दिया और वाम दल अपनी सियासी जमीन के लिए सिर्फ चुनावों में कहीं कहीं दिखती रही.

कर्पुरी ठाकुर(फाइल फोटो)

2005 से नीतीश का सुशासनवाद
बिहार के लालू राजनीति ने बिहार में कांग्रेस और वाम दल को किनारे तो कर दिया लेकिन जिस अतिवाद ने जन्म लिया उसने लालू की राजनीति को भी किनारे कर दिया. वाम दलों की हालत बद से बदतर हो गयी 2005 में भाकपा माले ने पिछली बार 104 सीटों पर चुनाव लड़ा था. वामपंथ की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि 96 स्थानों पर जमानत जब्त हो गयी. वोट के लिहाज से बात करें तो माले को 2005 में 5 लाख 20 हजार 352 मत हासिल हुए थे जो कुल पड़े मतों के मुकाबले केवल 1.79 फीसदी था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 48 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गयी थी और वोटों के रूप में उसे केवल 4 लाख 91 हजार 630 मत हासिल हुए थे जो कुल पड़े मतों के सापेक्ष केवल 1.69 फीसदी रहे. भाकपा के केवल एक उम्मीदवार अवधेश कुमार राय बछवाड़ा सीट से विजयी रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 28 जगहों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी.

नीतीश कुमार (फाइल फोटो)

नीतीश के सबसे मजबूत चुनाव 2010 को देखा जाय तो इसमे वाम दल का पूरी तरह से सफाया हो गया इस चुनाव में वाम दल का खाता ही नहीं खुला. 2015 में नीतीश और लालू साथ हुए तो वाम दल को थोडी मजबूती मिली और 3 सीटों पर उसने जीत हासिल की लेकिन 2020 की सियासत में फिर से वाम दल राजद के पीछे कांग्रेस और राजद के वोट बैंक में से अपने लिए राजनीतिक जमीन खोज रहे हैं.

कभी वाम दलों का गढ़ हुआ करता था बेगूसराय
बिहार की सियासत में वाम दल के जिस वोट बैंक को जेपी के सिद्वांत की राजनीति करने वालोंं ने पकड़ा उसमें नीतीश और राम विलास पासवान बीजेपी के साथ है. बेगूसराय जिसे वाम दल का गढ़ माना जाता था और इसे लेनिन ग्राम कहा जाता था वहां भी वाम दल अपनी जमीन नहीं बचा सकी. भोला सिंह के बाद कटटर हिन्दूवादी छवि के नेता गिरिराज सिंह ने लोकसभा चुनाव में जिस अंतर से जीत दर्ज की उसने वाम दल की मजबूती और राजनीति पकड़ की कहानी की मटिया पलीत कर दी. 2020 के लिए सज रहे सत्ता की हुकूमत की जंग में वाम दल राजद कांग्रेस गठबंधन के संग तो है.लेकिन उसके साथ जनता कितनी है यह साफ नहीं है. बस साथ का वादा ही वाम दल के काम को आगे बढ़ा सकती है.

Last Updated : Oct 6, 2020, 2:30 PM IST

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