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बिहार में हाशिए पर 'दलित राजनीति', समझिए.. समय के साथ कैसे कमजोर होता गया ये आंदोलन

बिहार में दलितों के कई बड़े चेहरे हुए. उन्होंने लगातार दलितों की आवाज को बुलंद किया. लेकिन मौजूदा वक्त में दलित राजनीति हाशिए पर नजर आ रही हैं. इस रिपोर्ट में दलित राजनीति को हाशिए पर जाने की स्थिति को विस्तार से समझिए..

दलित राजनीति
दलित राजनीति

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Published : Oct 11, 2021, 9:46 AM IST

पटनाःबिहार में दलित राजनीति (Dalit Politics) की दशा और दिशा बदल गई है. दलित सियासत को धार देने वाले नेताओं की भी कमी स्पष्ट तौर पर दिख रही है. बिहार की सियासत (Politics In Bihar) की मुख्य धारा में दलित राजनीति करने वाले नेता भी अलग-अलग जातियों और दलों में बंट चुके हैं और नेतृत्व के संकट से दलित राजनीति भंवर में है.

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बिहार देश का ऐसा राज्य है जिसने पहला दलित उप प्रधानमंत्री दिया. बिहार के भोजपुर जिले के चंदवा गांव के बाबू जगजीवन राम जनता सरकार में पहले दलित उप प्रधानमंत्री के रूप में चुने गए थे. बिहार की बात करें तो यहां भोला पासवान शास्त्री पहले दलित मुख्यमंत्री बने. 16 प्रतिशत दलित आबादी वाले राज्य में कई बड़े नेता हुए.

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1960 के दशक में भोला पासवान शास्त्री पहले दलित मुख्यमंत्री चुने गए थे, वहीं 1977 में बाबू जगजीवन राम को देश के पहले दलित उप प्रधानमंत्री बनने का गौरव मिला था. इनके बाद रामविलास पासवान बड़े दलित नेता के रूप में उभरे और लंबे समय तक केंद्र में मंत्री रहे.

बिहार में दलितों की आबादी 1 करोड़ 65 लाख के आसपास है. दलितों के लिए 38 विधानसभा सीट सुरक्षित है. जब बिहार झारखंड एक था तब सुरक्षित सीटें 48 हुआ करती थी. परिसीमन से पहले 40 सुरक्षित सीट हुआ करती थीं, लेकिन इसके बाद यह घटकर 38 हो गई. मौजूदा वक्त में दलित नेता तो हैं, लेकिन उन्होंने राजनीति को जातियों में बांट दिए हैं. आलम ये है कि दलित राजनीति संकट के दौर से गुजर रही है.

रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी की दलित राजनीति को आगे बढ़ाने को लेकर चुनौतियां काफी है. एक तरफ रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत अब दो धड़ों में बंट गई है. उनके बेटे चिराग पासवान और उनके भाई पशुपति कुमार पारस के बीच लड़ाई ने दलित राजनीति को कमजोर किया है. इधर, मुख्यमंत्री रह चुके जीतनराम मांझी दलितों की आवाज को बुलंद करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन एनडीए गठबंधन उनके लिए लक्ष्मण रेखा साबित होती है.

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2020 के विधानसभा चुनाव में कुल 38 दलित विधायक चुनाव जीतकर आए. जिसमें पासवान जाति से 13, रविदास जाति से 13, मुसहर समाज से 7, पासी जाति के 3 और एक विधायक मेहतर जाति के शामिल हैं. दलगत आधार पर अगर ये बातें की जाए तो बीजेपी और आरजेडी के 9-9 विधायक दलित हैं. वहीं, जेडीयू के 8, कांग्रेस के 4, हम पार्टी के 3, सीपीआई (एमएल) के 3 और वीआईपी-सीपीआई के एक-एक दलित विधायक हैं.

साल 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद के टिकट पर सबसे ज्यादा 14 दलित विधायक चुनाव जीतकर आये थे. जबकि जदयू के 10, कांग्रेस के 5, भाजपा के 5 विधायक चुने गए थे. इनमें सबसे ज्यादा 13 सीटें रविदास समुदाय के खाते में गईं थी, जबकि 11 पर पासवान समुदाय का कब्जा रहा है.

यहां ये बताना जरूरी है कि पहले बिहार के दलित समुदाय में 22 जातियां आती थीं. लेकिन साल 2005 में जब नीतीश कुमार सरकार में आए तो उन्होंने दलित वोट बैंक साधने के लिए दलितों को दो भागों में बांट दिया. 22 में से 21 जातियों को महादलित कैटेगरी में शामिल कर दिया. सिर्फ पासवान जाति को दलित कैटेगरी में रखा गया.

बाद में जब रामविलास पासवान और नीतीश कुमार एनडीए का हिस्सा हुए तब साल 2018 में ज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने पासवान जाति को भी महादलित कैटेगरी में लाने का ऐलान किया था. लेकिन यह ऐलान अब तक अमल में नहीं लाया जा सका.

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राजनीतिक चिंतक और दलित नेता रघुवीर मोची का मानना है कि समाजवादी नेताओं के दुर्भाव से दलित राजनीति की धार कुंद हुई. समाजवादियों ने दलितों को बांटने में कामयाबी हासिल की. दलित-महादलित के बंटवारे से दलित आंदोलन कमजोर हुआ.

पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और राजद के वरिष्ठ नेता उदय नारायण चौधरी इस पर कहते हैं कि दलित राजनीति में भटकाव एनडीए नेताओं की वजह से आई है. दलितों को धर्म में उलझा दिया गया और रही सही कसर नीतीश कुमार ने महादलित संवर्ग बनाकर कर दिया.

वहीं राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार कहते हैं कि दलित नेता सत्ता सुख भोगने के लिए जाति और दलों में बैठ गए हैं. दलित नेताओं में आपसी सामंजस्य नहीं रह सका, जिसके चलते आंदोलन कमजोर होता चला गया. कांग्रेस के शासनकाल में दलित एकजुट थे. बाद में लालू यादव ने भी दलित वोट बैंक को मजबूती से अपने पक्ष में रखा, लेकिन नीतीश कुमार ने दलित और महादलित में बंटवारा कर दलित राजनीति को मोड़ दिया.

वरिष्ठ पत्रकार का कौशलेंद्र प्रियदर्शी का मानना है कि बिहार के तमाम राजनीतिक दलों ने वोट बैंक का बखूबी इस्तेमाल किया, लेकिन दलितों के मुद्दे जस के तस रहे. दलित नेताओं में भी एकजुटता का अभाव रहा. नीतीश कुमार ने इसका खूब फायदा उठाया और यह नीतीश सरकार के द्वारा दलित संवर्ग को खत्म किए जाने का नतीजा है.

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