पटना:5 जून 1974 को गांधी मैदान से यह कहा गया था कि क्रांति शब्द नया नहीं है. लेकिन, 'संपूर्ण क्रांति' शब्द नया है. पटना के गांधी मैदान में नीति, सिद्धांत और व्यक्त्त्वि की नई सियासत के लिए उस समय, जो जन हुजूम उमड़ा था, उसने तय किया था कि देश की चल रही सरकारी तानाशाही और निरंकुशता को खत्म किया जाएगा. आज से 46 साल पहले जय प्रकाश नारायण ने बिहार के गांधी मैदान से अपनी बातों से जिन मूल्यों को रखा, उसने सामाजिक बदलाव के ऐसे आंदोलन को खड़ा किया, जिसने समाज को दिशा दी.
जेपी के आंदोलन ने सामाजिक उत्थान की सबसे बड़ी कुप्रथा जात-पात को भी खत्म करने के लिए एक संकल्प खड़ा कर दिया. उस समय नारा गूंजा था, 'जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो, समाज के प्रवाह को नयी दिशा में मोड़ दो.' जेपी ने समाजिक सिद्धांत का वह पहलू बदलाव के लिए रख दिया, जिसने तत्कालीन सत्ता पर आसीन हुक्क्मरानों की गद्दी हिला दी.
गरीबों के नायक बनकर उभरे जेपी
जय प्रकाश ने सामाजिक बदलाव की जिस अलख को जलाया था. उसका असर भी हुआ. संपूर्ण क्रांति के रास्ते बिहार की राजनीति जब आगे बढ़ी, तो सूबे ने सामाजिक बदलाव की कहानी लिख दी . पिछड़ा उठा और सत्ता-समाज में उपेक्षित लोग जेपी सिद्धांत की सियासत से गरीबों के नायक बनकर उभरे. बिहार में लालू, नीतीश, रामविलास पासवान, जिन्हें जेपी के बाद के बिहार की राजनीतिक दिशा की जिम्मेदारी मिली, वो इतने मजबूत हुए कि केन्द्र सत्ता पर इनकी पकड़ और दखल इतनी मजबूत हुई कि जेपी के सिद्धांतों के बूते अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देते थे.
जमीन पर नहीं उतरा जेपी का सपना
इसमें दो राय भी नहीं है कि जेपी के सिद्धांतों के दम पर इनकी सियासत ने इन्हें सत्ता के शिखर तक पहुंचा दिया. इन्हीं सिद्धांतों के बूते सत्ता के शिखर तक पहुंचे इन नेताओं के समय ही जेपी के पूरे सिद्धांत ही बिखर गए. जेपी के सिद्धांत खूब बिके. लेकिन जेपी का जो सपना था. वह जमीन तक नहीं उतरा. जेपी के बाद की सियासत में ऐसी दखल हुई कि जनता ने उन्हें जन नायक बना दिया. केन्द्र की सत्ता हिल गयी. नीतियों के मामले पर घिरी इन्दिरा गांधी ने आपातकाल भले ही लगा दिया. लेकिन देश की सियासत में कांग्रेस राजनीति की मजबूत नींव को जेपी ने जड़ से हिला दिया.
राजनीति के लिए जेपी का इस्तेमाल
उसके बाद के हुए चुनावों में राजनीतिक बदलाव हुआ और राजनीतिक महात्वाकांक्षा में बहुत कुछ बदल गया. बहुत कुछ विभेद के साथ खड़ा हो गया. लेकिन, इन तमाम सियसी बितंडे की बीच दबे कुचले समाज ने अवाज उठाना शुरू कर दिया. लालू ने उसकी सियासत की, रामविलास उसकी आवाज बने और नीतीश ने भी उसे अपनाया और नया बिहार बनाने का संकल्प जेपी की प्रतिमा के सामने ले लिया. लेकिन बदला क्या? सिद्वांन्त की सियासत पर कोई नहीं टिका. जेपी ने जब जाति व्यवस्था पर सवाल किया, तो हजारो नहीं लाखों जनेऊ गांधी मैदान में लोगों ने निकाल कर तोड़ दिये.
5 जून को दिया था संपूर्ण क्रांति का नारा
समाज में सामाजिक बदलाव का यह एक ऐसा विरोध था, जिससे समाजिक लम्बरदारी का ठेका लेकर मठाधीशी करने वालों का कलेजा कांप गया था. संकल्प सिद्धांत के रूप में तय हुआ, तो नारा भी गूंज गया. लेकिन हाय रे जेपी की सियासत, जो बाजार में बिक तो गयी लेकिन उनके सिद्वांन्तों का झंडा उठाने का दावा करने वाले लोगों ने अपने मतलब के अनुसार खूब भुनाया. नारो में तो जेपी खूब चले लेकिन जमीन पर उनके हक, हुकूम की लड़ाई नहीं लड़ पाए. जिसकी पहली अंगडायी जेपी ने गांधी मैदान से 5 जून 1974 को भरवाई थी.
पत्नी के साथ जेपी (फाइल फोटो) लालू की सियासत
लालू को जाति चाहिए, जय प्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन ने देश की राजनीति को बदल दिया. आपातकाल के बाद जो चुनाव हुआ. उसमें इंदिरा गांधी की सत्ता चली गयी. छात्र आंदोलन की लहर से उपजे लालू यादव 1977 में छठी लोकसभा चुनाव में मात्र 29 साल की उम्र में सांसद चुने गए. लालू यादव ने राजनीति में अपनी मजबूत दखल बनायी और बिहार की सत्ता को एक नया रंग दे दिया. लालू बिहार में जेपी सिद्वांन्त के ऐसे प्रणेता बने कि कांग्रेस की मजबूत वापसी के बाद भी बिहार में कांग्रेस की एकजुटता पर लगातार संकट आता रहा. लालू यादव ने अपने ठेठ अंदाज के लिए राजनीति में अलग मुकाम बनाए. लेकिन मंडल कमीशन के बाद जाति के जिस रंग को सभी राजनीतिक दलों ने पकड़ा. उसने पूरे देश की राजनीति की दिशा ही पलट दी.
जब लालू के बिना राजनीति लगती थी मुश्किल
सिद्वांन्त की राजनीति समझौते की राजनीति बन गयी. जाति की राजनीति की दिशा देकर बिहार में लालू यादव राजनीति के ऐसे केन्द्र बिंदु बन गए कि बिना लालू यादव के बिहार में कुछ सोचना भी दलों के लिए कठिन था. बिहार में जब तक लालू यादव की सरकार रही, तब तक दूसरे राजनीतिक दलों को बहुत जगह नहीं मिली. लालू बिहर की राजनीति में एक खास वोट के लिए विचारधारा बन गए हैं, जो लालू यादव से अलग जााता ही नहीं है. 2015 में लालू यादव बदले राजनीति हालात के तहत, जब नीतीश से समझौता किया, तो विकास के बड़े मॉडल की बात करने वाले नीतीश और नरेन्द्र मोदी दोनों से ज्यादा सीट अपनी पार्टी की झोली में डाल दिया, जो जातीय राजनीति का कारण रहा है. हालांकि, जेपी के सिद्धांत पर चलने की बात लालू यादव जरूर करते हैं. लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार में रेल मंत्री बनें, तो सवाल यही उठा कि जिन कांग्रेस की नीतियों के मुखालफत के जेपी ने लड़ाई लड़ी. जेपी के सिद्धांत कांग्रेस से कभी नहीं मिले. उसी कांग्रेस की गोद में वे लोग जाकर बैठ गए, जिनके पास जेपी के सपनों को साकार करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी. अवसर की राजनीति वाली लालच ने जेपी के सिद्धांतों को बाजार में ले जाकर बेच दिया. जेपी के विचारों को राजनीतिक जीवन का सत्य कहने वाले नीतीश कुमार भी जाति की सियासत से अलग नहीं रह सके. बिहार के हक की लड़ाई में नीतीश कुमार ने लालू विरोध का ऐसा ताना बाना बुना कि लालू की जातीय सियासत में सेंधमारी की और भाजपा के समर्थन से गद्दी पर बैठ गए.
जाति के नाम पर बांटे गए वोट
लालू यादव की राजनीति को लगातार गलत बताया. लेकिन जाति के नाम की सियासत पर दलित और महादलित में बिहार को बांट दिया. बिहार में जातीय राजनीति ने इस कदर सियासत को गिरफ्त में ले लिया कि कैबिनेट में मंत्री जाति के आधार रखे जाने लगे. जाति की सियासत में उलझे बिहार को आज भी इसमें कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. रामविलास पासवान अवसर की राजनीति के दिग्ग्ज नेता हैं और राजनीतिक जरूरत के अनुसार खुद को बदल लेते हैं. बिहार ने इनके परिवर को तो खूब दिया. लेकिन जाति की सियासत से रामविलास कभी अलग गए ही नहीं. बिहार की सियासत हर 5 जून इस सवाल के साथ जगती तो जरूर है कि आज के दिन संपूर्ण क्रांति की बात हुई थी. लेकिन वे राजनीति के दर्शन वाले सिद्धांत हैं कहां? लालू, रामविलास और नीतीश ने जेपी के नाम की राजनीतिक खेती खूब की. जाति के मजबूत आधार की फसल भी खूब काटी. सत्ता और सियासत में नाम भी खूब कमाया. लेकिन जेपी के सिद्वांत का सपना पूरी तरह से डूब गया.
आज कहां है जेपी?
बिहार में 5 जून 2020 को जो राजनीति जगह बना रही है. उसमें सभी राजनीतिक दलों को इस बात की चिंता है कि सियासत में जीता कैसे जाए. जाति की सियासत होगी, यह तय है. सिद्धांत की राजनीति से सरकार बनेगी, यह कहना मुश्किल है. लेकिन कोरोना ने जो हालात बिहार को दिए हैं, उसमे जेपी अपने लोगों से सवाल पूछ रहे हैं कि बिहार के पलायन को रोकने के लिए क्या किया. बिहार के रोजगार के लिए क्या किया. बिहार जो कभी बिहार से बाहर जा रहा था, एक बार फिर लौटा है. उसके लिए क्या हो रहा है. आज जेपी होते, तो यही पूछते कि संपूर्ण क्राति से गरीबों को मजबूत करने के लिए खड़ा किया गया सपना कहां बिखर गया और जेपी के सिद्वांन्त हैं कहां ? जेपी कहां हैं?