पटना: सामाजिक व्यवस्था में मानवीय मूल्यों को सबसे उत्कृष्ट स्थान इसलिए दिया गया है कि वहां पर जीवन और उसके मूल्य ही सैद्धांतिक व्यवस्था और नैतिक मूल्यों का सबसे बड़ा सच होता है. लेकिन जरा सोचिए, इसी व्यवस्था में अगर भाषा का स्वरूप यह हो कि मेरी लाश लाइन में है तो अंदाजा लगाना सहज है कि दर्द के इस आवाज को कौन सुना सकेगा.
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हेलो... अपनी लाश लाइन में है
कैसे बताई जाए और कौन सी भाषा में इसे बयां किया जाए. बिहार के हर घाट पर कमोबेश यही स्थिति है. अपनों की लाश को लेकर लाइन में खड़े लोग अगर कुछ बता पाने की स्थिति में हैं तो बस यही "हेलो.. अपनी लाश लाइन में है".
विकास की एक बहुत बड़ी बानगी लिखने में बिहार जुटा था, लेकिन कोरोना ने बिहार को जिस अथाह पीड़ा के दर्द में डाल दिया है उससे निकलने की कोई राह ही नहीं दिख रही है. पटना के मनेर से लेकर बाढ तक अगर गंगा की दूरी को नाप दिया जाए तो 100 किलोमीटर से ऊपर गंगा घाट हैं. शायद ही कोई ऐसी जगह है जहां अपनों की लाश जलाने के लिए लोग पतित पावनी गंगा के किनारे न खड़े हो. बात घाटों की करें तो कभी 3 से 5 लाशें इन घाटों पर आती थी, लेकिन आज 200 से ज्यादा लाश पूरी रात जलाई गई है.
लाशों की लगी लाइन
सवाल यह उठ रहा है कि सरकारी आंकड़े में कोरोना से मरने वालों की संख्या जब महज 84 और 89 है तो फिर 200 से ज्यादा लाशें 1 घाट पर जल कैसे रही हैं. सिर्फ बांस घाट की बात कर लेते हैं तो यहां पर भी लाशें लाइन में रखी हुई हैं. हालांकि हिंदू धर्म में लाश जलाने की जो मान्यता है उसमें कभी लाशों की गिनती नहीं की जाती. बांस घाट पर खड़े होकर अगर आप देखें तो बड़ा अजीब सा नजारा दिख रहा है. लाइन लगी है लाशों की. लोग जाकर पूछ लेते हैं कि मेरी बारी कब तो बता दिया जाता है कि इंतजार करिए अभी घंटों लगेंगे.
डॉक्टरों की राह जोह रहा बिहार
मैं बिहार हूं. मेरी लाशें लाइन में लगी हैं. मैं क्या करूं? गौतम बुद्ध के किस ज्ञान की कहानी पर कैसे इतराऊं? पूरे विश्व को ज्ञान बांटने वाला बिहार आज पढ़े-लिखे डॉक्टरों की राह जोह रहा है. कोई आए और इस बिहार को बचा ले. मेरे दामन को सजाने वाले ये तमाम फूल जो खाक में मिल रहे हैं, इसमें राजनीति की झूठ और झूठ से राजनीति की वो मिलावट है, जिसने बिहार को कभी आगे जाने ही नहीं दिया.
बिहार ने अपने को सजाने के लिए वह सब कुछ किया, जिससे विश्व में मिल्लते मोहब्बत का पैगाम बांटा जा सके. गौतम बुद्ध का ज्ञान हो या गुरु गोविंद सिंह की वीरता, महावीर के सिद्धांत हो या माता सीता की धरती. विश्व को लोकतंत्र देने का गौरव इसी धरती पर है, लेकिन आज जिस राजनीति को इस धरती पर उतारा गया है, उसके विकास की सबसे बड़ी बानगी इन गंगा घाटों के किनारे लाइन में लगी अपनों की लाशें हैं.
मैं अपना दागदार दामन लिए सिर्फ अपनों के क्रंदन से कराह रहा हूं. इसमें कई ऐसे हैं जिनका सुहाग कोरोना ने लील लिया. बूढ़े मां-बाप का एक ही सहारा था, कोरोना के कारण काल कवलित हो गया. अब वे तमाम लाशें एक घाट के किनारे लाइन में हैं. मैं इनके बीच दौड़ रहा हूं कि कहीं से इन्हें कुछ राहत दे पाऊं, लेकिन विधाता की नियति के आगे किसी का कुछ चलता नहीं. इसे रोकने के लिए राजनीति के जिस विधान को धरती पर उतारना था उसमें सिर्फ हवाबाजी और लफ्फेबाजी ही होती रही जिसका परिणाम आज बिहार लाशें गिन रहा है.