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80 साल की उम्र में की थी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत, थर थर कांपते थे फिरंगी, जानिए वीर कुंवर सिंह की कहानी - ईटीवी भारत न्यूज

1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में अजादी की पहली लड़ाई के नाम से जाना जाता है. इस पहली लड़ाई के वीर योद्धा थे 80 साल के वीर कुंवर सिंह. जिन्होंने भोजपुर की धरती पर अंग्रेजी शासकों के छक्के छुड़ा दिए थे. अंग्रेजों की लाख कोशिश के बावजूद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा. 23 अप्रैल का दिन उनके विजयोत्सव (veer kunwar singh vijayotsav) के रूप में मनाया जाता है. जाने उनकी पूरी कहानी...

वीर कुंवर सिंह
वीर कुंवर सिंह

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Published : Apr 22, 2022, 11:16 AM IST

Updated : Apr 22, 2022, 3:06 PM IST

पटनाः1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian Freedom Movement 1857) के महानायक बाबू वीर कुंवर सिंह की कृति आज भी लोगों के स्मृतियों में है. अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले वीर कुंवर सिंह अपनी वीरता के लिए जाने जाते हैं. 80 साल की उम्र में भी उन्होंने जो हिम्मत और साहस का परिचय दिया, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है. बाबू वीर कुंवर सिंह (Freedom Fighter Babu Veer Kunwar Singh) के अंदर सेना के नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी. आरा के जगदीशपुर में 17 नवंबर 1777 को जन्मे वीर कुंवर सिंह को इतिहास में 80 साल की उम्र में दुश्मनों से लड़ने और जीत हासिल करने के जज्बे के लिए जाना जाता है.

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अंग्रेजी सिपाहियों ने भी बगावत का बिगुल फूंकाः अंग्रेजों के खिलाफ देश की आजादी के लिए 1857 की लड़ाई को स्वतंत्रता का पहला आंदोलन भी कहा जाता है. मंगल पांडे ने जिस चिंगारी को भड़काया. वह पूरे देश में विप्लव बन गई और ये राष्ट्रव्यापी आंदोलन आग की तरह फैल गया. हिंदू और मुसलमानों के बीच अभूतपूर्व एकता आंदोलन के दौरान देखने को मिली. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू हो गया. बिहार के दानापुर रेजिमेंट बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत का बिगुल फूंक दिया. देखते ही देखते मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आंदोलन की आग भड़क गई.

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27 अप्रैल 1857 को भोजपुर पर किया कब्जाः ऐसे हालात में बाबू वीर कुंवर सिंह भी खुद को नहीं रोक पाए और खुद सेनापति बनकर भारतीय सैनिकों के साथ मैदान-ए-जंग में आ गए. बाबू वीर कुंवर सिंह की वीरता की पहली झलक तब मिली जब 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों और भोजपुर के जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया. अंग्रेजों की लाख कोशिश के बावजूद भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा. वीर कुंवर सिंह ने आरा जेल को तोड़कर कैदियों को मुक्त कराया और खजाने पर कब्जा जमाया. इतनी ही नहीं उन्होंने आजमगढ़ पर भी कब्जा किया. लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी भी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले थे.

यूपी में भी देते रहे आंदोलन को धारःआपको बता दें कि वीर कुंवर सिंह मालवा के सुप्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे. वीर कुंवर सिंह के पास बड़ी जागीर थी. लेकिन उनकी जागीर ईस्ट इंडिया कंपनी की गलत नीतियों की वजह से छीन गई. अंग्रेजों ने आरा पर हमला किया और बीबीगंज और दिव्या के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए और आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने बाबू वीर कुंवर सिंह के किले को चारों तरफ से घेर लिया. वीर कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्मभूमि छोड़नी पड़ी. अमर सिंह अंग्रेजों के खिलाफ छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू वीर कुंवर सिंह अपने वीर सैनिकों के साथ बनारस, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर में आंदोलन को धार देते रहे.

वीर कुंवर सिंह की प्रतिमा

बाबू वीर कुंवर सिंह की वीरता से अभिभूत होकर ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने लिखा कि 'उस बोले राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन बान के साथ लड़ाई लड़ने का काम किया था. गनीमत थी कि युद्ध के समय वीर कुंवर सिंह की उम्र 80 के करीब थी, अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता'

विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है 23 अप्रैल का दिनः बाबू वीर कुंवर सिंह लंबे अरसे तक अपनी सेना के साथ अंग्रेजों से लड़ते रहे. इसी दौरान वो सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से रात्रि के समय नाव के सहारे गंगा नदी पार कर रहे थे, तभी अंग्रेजों ने अचानक उन पर हमला बोल दिया और अंधाधुन फायरिंग करने लगे. वीर कुंवर सिंह इस दौरान घायल हो गए और उनके बांह में गोली लगी. तब भी वह रुके नहीं. उन्होंने अपनी तलवार से बांह को काटकर नदी में प्रवाहित कर दिया और अंग्रेजी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को अपने गांव जगदीशपुर के महल में वापस आए. तब उन्होंने जगदीशपुर के अपने किले पर फतह पाई थी और ब्रिटिश झंडे को उतारकर अपना झंडा फहराया था. यही वजह है कि 23 अप्रैल का दिन उनके विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है. जगदीशपुर वापस आने के कुछ समय बाद ही 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई.

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Last Updated : Apr 22, 2022, 3:06 PM IST

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