पटना:अपने फेसबुक पोस्ट में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी विकास वैभव(IPS Vikash Vaibhav) ने बताया कि किसी भी कार्य को करने के दौरान सिर्फ व्यक्तिगत लाभ नहीं देखना चाहिए बल्कि समस्त समाज का लाभ देखना चाहिए. अपने पोस्ट (Facebook Post) के माध्यम से उन्होंने पूरे समाज को संदेश दिया है. नीचे पढ़िए विकास वैभव का पूरा पोस्ट..
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लेह में बीते पलों का स्मरण कर रहा है #यात्री_मन ! मित्रों, लद्दाख भ्रमण के क्रम में 27, जुलाई, 2021 के संध्या की एक अविस्मरणीय अनुभूति को आज आपके साथ साझा करना चाहता हूँ.। आपको संभवतः यह स्मरण होगा कि जुलाई, 2021 के अंतिम सप्ताह में मैं लद्दाख में था जहाँ लेह के अतिरिक्त नुबरा घाटी तथा पैंगोंग सरोवर की यात्रा भी कर सका था. इस परिभ्रमण के क्रम में अनेक ऐसी अनुभूतियां हुईं जिन्होंने चिंतनरत मन को निश्चित रूप से प्रभावित किया जिनमें से कुछ पूर्व में साझा भी कर चूका हूँ.
विकास वैभव अपने पोस्ट में आगे लिखते हैं " प्रत्यक्ष रूप में बादल फटने की प्रथम अनुभूति लेह के निकट शक्ति में 29 जुलाई को तब हुई थी जब नुबरा घाटी से वारिला होते हुए पैंगोंग की यात्रा पर था. प्रकृति द्वारा अचानक वीभत्स रूप धारण किए जाने की वह अनुभूति वास्तव में अद्भुत थी चूंकि यदि केवल 5 सेकेंड से ही चूके होते तो बादल फटने के कारण उत्पन्न तीव्र जलधारा में उसी समय बह गए होते और आज संभवतः यह पोस्ट नहीं कर रहे होते. लेह की उस अनुभूति ने निश्चित ही मन को क्षणिक रूप में उस समय अवश्य कुछ विचलित किया था परंतु उसी समय कुछ चिंतन करने पर ही मन शांत एवं आश्वस्त भी हो गया था कि सर्वशक्तिमान की कृपा बनी हुई है."
विकास वैभव बताते हैं कि "इस यात्रा के क्रम में जो सर्वाधिक अविस्मरणीय अनुभूति रही, उसे आज आपके साथ साझा करता हूँ. चूंकि #LetsInspireBihar अभियान के संदर्भ में आज एक मित्र से चर्चा के क्रम में एक प्रश्न को उत्तरित करने की मानसिक प्रक्रिया ने उस अनुभूति के पुनः स्मरण हेतु मुझे बाध्य कर दिया.
बात 26, जुलाई, 2021 के प्रातः काल से ही प्रारंभ करता हूँ जब वायुमार्ग से लेह जा रहा था चूंकि तब से ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मेरे लिए कुछ न कुछ संदेश अवश्य ही उस पर्वतीय क्षेत्र में समाहित है जिसे ग्रहण करने के निमित्त ही यात्रा का संयोग बना था. लेह पहुंचने पर प्रथम दिवस अल्प ऑक्सीजनीय क्षेत्र में शारीरिक अनुकूलन हेतु विश्राम में बिताने के पश्चात 27, जुलाई को प्रातः काल ही सिंधु नदी के तट की ओर निकल गया था जहां बैठकर मन उन प्राचीन ऋषियों तथा मनीषियों का स्मरण करने लगा, जिनके तत्वदर्शी विचार आज भी प्रेरित करते हैं. मन यह सोचने लगा कि कभी वे भी उन्हीं पर्वतों के मध्य सिंधु के किनारे बैठकर उन तत्वों को ग्रहण करने का प्रयास करते रहे होंगे जिनके कारण हिमालय की आध्यात्मिक उर्जा मर्त्यलोक में प्रसिद्ध होती चली गई.
ऋषियों का स्मरण करते हुए धीरे-धीरे जब काल के क्रम में आगे बढ़ने लगा तब उसी क्षेत्र के मूल निवासी रहे प्रसिद्ध आचार्य #रत्नवज्र तथा #साक्यश्री का स्मरण आने लगा जो आज से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पूर्व अध्ययन हेतु वहां से #विक्रमशिला महाविहार तक यात्रा कर पहुंचे थे और वहां अपनी विद्वता के कारण केवल प्रसिद्ध ही नहीं हुए थे अपितु विक्रमशिला के द्वारपालाचार्य के रूप में नियुक्त भी हुए थे. सिंधु के तट पर चिंतनरत होने पर समय बीतने का पता ही नहीं चला और भोजन का निर्धारित समय समीप आ गया. वहां से जब वापस विश्राम गृह की ओर लौट रहा था तब मन अत्यंत आध्यात्मिक भावों में सराबोर था.
जिस अविस्मरणीय अनुभूति को मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूं संभवतः उसकी भूमिका सिंधु किनारे से ही प्रारंभ हो चुकी थी. विश्राम गृह में भोजन तथा अल्पविश्राम के पश्चात संध्या के पूर्व लेह के ही एक पर्वत पर अवस्थित विश्व शांति स्तूप के भ्रमण हेतु निकला. वहां पहुंचकर जब स्तूप को देखते हुए धीरे-धीरे ऊपर बढ़ रहा था तब स्तूप से ठीक पहले अवस्थित एक मंदिर की ओर ध्यान गया और वहां व्याप्त शांति के वातावरण की अनुभूति हेतु कुछ पल व्यतीत करने की इच्छा होने लगी. तब मैंने तय किया कि सर्वप्रथम स्तूप के आसपास घूम लेता हूं और तत्पश्चात कुछ समय मंदिर में अवश्य व्यतीत करूंगा.
लेह का मौसम भी उसी दिन अचानक बदला था और दोपहर में जलवृष्टि के उपरांत पर्वतों के मध्य वायु के तीव्र प्रवाह में समाहित शीतलता की भौतिक के साथ-साथ आत्मीय अनुभूति भी हो रही थी. स्तूप की ओर बढ़ने के क्रम में जब मुस्कुराकर "नमस्कार सर !" कहते हुए कुछ लोगों से साक्षात्कार हुआ तो मिलते ही लगा कि संभवतः वे बिहार के ही होंगे और मुझे जानते होंगे. वार्ता के क्रम में ज्ञात हुआ कि वे लोग भी बेगूसराय,बिहार के ही निवासी थे और मुझे वहां देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित और प्रसन्न हो गए थे. मुझे भी मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई और उनसे मिलने के पश्चात कुछ समय तक एकांत में धीरे-धीरे स्तूप की परिक्रमा करता रहा और जीवन रूपी यात्रा के लक्ष्यों पर चिंतनरत होने लगा.
तत्पश्चात स्तूप के समीप ही कुछ समय के लिए एकांत में बैठकर जब पर्वतों की ओर देखने लगा, तब मन पर्वतराज हिमालय से साक्षात्कार के क्रम में संलग्न होकर पुनः सिंधु तट पर बीते क्षणों की भांति आध्यात्मिक होता चला गया और ऐसे में उन पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य समाहित शीतलता में मानवीय चिंतन से परे परंतु दीर्घकालिक एकांत में ग्राह्य उस अत्यंत अद्भुत दृष्टि की आत्मीय अनुभूति सी प्रारंभ होने लगी, जिसने प्राचीनतम काल से ही ऋषियों तथा मनीषियों को भी कालमुक्त चिंतन हेतु निश्चित रूप से प्रेरित किया होगा.
शीतल वायु के प्रवाहमान वातावरण में स्तूप के समीप लगभग आधे घंटे बैठने के पश्चात जब वापस मुख्य द्वार की ओर लौटने लगा, तब मंदिर ने पुनः अपनी ओर स्वतः आकर्षित कर लिया और इस बार जैसे ही मंदिर परिसर में प्रविष्ट हुआ. वहां समाहित शांति के वातावरण में कुछ समय के लिए ध्यानस्थ होकर बैठ ही गया. इस अवस्था में कुछ समय ही बीता था कि अचानक एक क्षण ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी असीम उर्जा के स्रोत से सशक्त साक्षात्कार हो गया हो और शरीर में एक अद्भुत कंपन के साथ आँखें खुल गयीं. आंखों के खुलते ही सीधा ध्यान सामने अवस्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा की ओर गया, जहां से एक संदेश निकलता हुआ सा प्रतीत हो रहा था जिसकी अनुगूंज में समाहित भावना मात्र एक शब्द रूप धारण करते हुए मन में निरंतर गुंजायमान हो रही थी.