पटना: राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने वंशवाद की राजनीति (Dynastic Politics of Bihar) को लेकर हाल ही में बिहार के सीएम नीतीश कुमार और पीएम नरेंद्र मोदी पर तंज कसा. हाल ही में एक साक्षात्कार में पीएम ने नीतीश की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक सच्चा समाजवादी नेता बताया था, जिनका परिवार राजनीति में नहीं है. इसके पहले भी कई बार पीएम ने साफ तौर पर कहा है कि वंशवाद लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन है.
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मोदी के बयान का जवाब देते हुए लालू ने कहा था कि मोदी की कभी कोई संतान नहीं थी जबकि नीतीश के बेटे को राजनीति से परहेज है. वास्तव में यह एक कड़वा सच है कि वंशवाद की राजनीति ने न केवल उत्तर भारत में बल्कि पूरे देश में हमेशा राज किया (Political families of India) है. बिहार से अधिक वंशवाद की राजनीति अन्य राज्यों जैसे तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कई अन्य राज्यों में दिखाई देती है.
लालू-पीएम और नीतीश के प्रकरण की पृष्ठभूमि में यह मान लेना अनुचित है कि वंशवाद की राजनीति की जड़ें बिहार में ही गहरी हैं. पार्टी और सरकार में शीर्ष पद पर काबिज परिवार के सदस्य बिहार की राजनीति में आम बात है और अन्य राज्यों में भी स्थिति अलग नहीं है.
अपने-अपने क्षेत्रों में दबदबा रखने वाले राजनीतिक सदस्यों ने हमेशा अपने बेटों, बेटियों और रिश्तेदारों के लिए टिकट हासिल करने में कामयाबी हासिल की है. केवल वंशवाद की राजनीति के लिए बिहार को दोष नहीं देना चाहिए. राजनेताओं के बेटे और बेटियों ने वास्तव में अच्छा प्रदर्शन किया है, हालांकि कुछ अपवाद ऐसे भी हैं जहां कुछ लोग क्लिक नहीं कर सके. यह बहस का विषय है कि क्या वंशवाद की राजनीति वरदान है या लोकतंत्र के लिए खतरा है.
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तेलंगाना के सीएम और टीआरएस सुप्रीमो चंद्रशेखर राव ने स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले दिनों में उनके उत्तराधिकारी उनके बेटे केटी रामाराव होंगे. केटीआर वर्तमान में केसीआर कैबिनेट में मंत्री हैं. इसी तरह आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने अपने बेटे नारा लोकेश को तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) का उत्तराधिकारी बनाने के लिए कई प्रयास किए. उन्हें वास्तव में टीडीपी के 2014-2019 के कार्यकाल के दौरान होने वाले सीएम के रूप में पेश किया गया था. राजनीति में वंशवाद पर सख्त रुख के बावजूद राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर हमारे राजनेता वंशवाद की राजनीति के चंगुल से बाहर नहीं निकले हैं और खुलेआम देखने को मिलता है.
यह नहीं भूलना चाहिए कि जगनमोहन रेड्डी ने दक्षिण में एक लोकप्रिय नेता वाई एस राजशेखर रेड्डी के बेटे होने के बावजूद अपनी खुद की पहचान बनाई, जिन्हें वाईएसआर के नाम से जाना जाता है. 2009 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में अपने पिता की मृत्यु के बाद जगनमोहन ने राज्य में 2014 का आम चुनाव लड़ने के लिए वाईएसआर कांग्रेस बनाई. हालांकि चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन 2017 में वे एक नेता के रूप में उभरे, जब उन्होंने आंध्र प्रदेश में लगभग एक साल तक 3500 किलोमीटर से अधिक की पैदल यात्रा शुरू की. इस अभियान के चलते उन्होंने 2019 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के साथ अपनी सरकार बनाई.
बिहार में वंशवाद की राजनीति कोई नई बात नहीं है, ऐसे कई उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि यह एक ऐसी परमपरा है जिसे नजरअंदाज और उपेक्षित नहीं किया जा सकता है. लालू प्रसाद का परिवार बिहार में वंशवाद की राजनीति का सबसे अच्छा उदाहरण है. लालू ने दो साले साधु यादव और सुभाष यादव के अलावा अपनी पत्नी राबड़ी देवी, दो बेटे और बेटी को आगे बढाया. स्वर्गीय रामविलास पासवान और उनके बेटे चिराग और भाई भी इसी श्रेणी में आते हैं.
बिहार में नेताओं के कई उदाहरण हैं जो राजनीति में अपने बच्चों को बढ़ावा देते हैं और यह केवल कुछ पार्टियों और जातियों तक ही सीमित नहीं है. दलित नेता और दिवंगत जगजीवन राम, जो केंद्रीय मंत्री भी रहे उन्होंने भी यही किया था और बेटी मीरा कुमार भी लोकसभा सदस्य और स्पीकर बनीं.
पूर्व सीएम स्वर्गीय जगन्नाथ मिश्रा ने अपने बेटे नीतीश मिश्रा को आगे बढ़ाया, जो अब पूर्व मंत्री और झंझारपुर से विधायक हैं. इसी तरह पूर्व सीएम भागवत झा आजाद के बेटे कीर्ति आजाद भी दरभंगा से सांसद थे. इसी तरह पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के बेटे संतोष कुमार सुमन मंत्री हैं.
नेहरू-गांधी परिवार को वंशवाद की राजनीति का रचयिता माना जाता है लेकिन यह केवल कांग्रेस में ही नहीं है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का परिवार, जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, एचडी देवेगौड़ा परिवार, सिंधिया परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार, कर्नाटक में करुणानिधि परिवार और कई अन्य हैं. हालांकि, राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति से वंशवाद की राजनीति गायब हो जाएगी.
पटना के राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ संजय कुमार ने कहा, 'दक्षिण भारत में शुरुआत से ही वंशवाद की झलक रही है जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि वंशवाद की राजनीति से निकले नेता लोकतंत्र को कमजोर करते हैं. उनका यह तर्क है कि लोगों ने वोट दिया है और नेता के रूप में चुना है. ये नेता अपने बेटे-बेटियों को टिकट देते हैं इसलिए मतदाताओं के पास शायद ही कोई विकल्प बच जाता है, इसलिए वे वोट देने के लिए बाध्य हैं. नेताओं को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अपनी पहचान बनाने और स्वतंत्र रूप से चुनाव जीतने के लिए कहें तो इसे सच्चा नेतृत्व माना जाएगा लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ.'
संजय ने आगे कहा, 'राजनेता इंजीनियर के बेटे के इंजीनियर बनने और डॉक्टर के बेटे के डॉक्टर बनने का तर्क उसी तरह देते हैं जैसे नेता का बेटा नेता बनता है. यह ठीक है, लेकिन नेता बनने के बाद वे लोगों की सेवा करना बंद कर देते हैं. वह दिन दूर नहीं जब लोग वंशवाद की राजनीति के पक्ष में वोट देना बंद कर देंगे. राजद के जगदानंद सिंह जैसा एक अपवाद है, जिसने अपने ही बेटे (सुधाकर सिंह) के खिलाफ प्रचार किया था, जब उन्होंने बीजेपी से चुनाव लड़ा था. नेताओं का लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं होना वंशवाद की राजनीति का असर है. संजय ने जोर देकर कहा कि वंशवाद की राजनीति से उभरे अधिकांश नेताओं ने उस स्तर के जीवन में कभी संघर्ष नहीं किया और यही कारण है कि वे हर चीज को हल्के में लेते हैं.'
वंशवाद की राजनीति पर एक अन्य विशेषज्ञ की पूरी तरह से अलग राय है. प्रसिद्ध लेखक जिन्होंने गोपालगंज से रायसीना किताब लिखी है - वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा ने कहा, "मेरे लिए यह निराधार मुद्दा है क्योंकि राजनेता इस शब्द का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं और इस मुद्दे को बार-बार छेड़ देते हैं चुनाव के समय अपने विपक्षी को नीचा दिखाने के लिए. कोई भी नेता अपने बेटे-बेटियों को तब तक राजनेता नहीं बना सकता जब तक लोग उन्हें स्वीकार नहीं करते. क्या लालू तेजप्रताप को बना सकते हैं नेता? कभी नहीं, लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे. लालू ने मीसा भारती को भी लोकसभा का टिकट देकर प्रयास किया लेकिन वह हार गईं. लोग तेजस्वी को मानते हैं और अब वे नेता बन गये हैं. जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के बावजूद क्या इंदिरा गांधी राज नारायण के खिलाफ चुनाव नहीं हार गईं?
नलिन ने आगे कहा, 'पीएम अपने फायदे के लिए वंशवाद की राजनीति का विरोध कर रहे हैं. वर्तमान में कर्नाटक के मुख्यमंत्री कौन हैं - बीजेपी के बसवराज बोम्मई जो एस आर बोम्मई के पुत्र हैं. बीजेपी का शिवसेना के साथ गठबंधन था जो वंशवाद की राजनीति की विरासत को भी आगे बढ़ा रही है. नवीन पटनायक के साथ बीजेपी का लंबा नाता रहा है जो वर्तमान में ओडिशा के सीएम हैं. नवीन बीजू पटनायक के बेटे हैं. नवीन 2000 से सीएम हैं. क्या उन्होंने वंशवाद की राजनीति के कारण सीएम का पद बरकरार रखा है. नहीं, ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग चाहते हैं कि वह सीएम बने. ज्योतिरादित्य सिंधिया जो कांग्रेस में थे और अब बीजेपी में हैं, इसका एक और उदाहरण है. ठाकुर प्रसाद भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे और उनके पुत्र रविशंकर प्रसाद वर्तमान में पटना साहिब के सांसद हैं. इसलिए मेरे लिए वंशवाद की राजनीति राजनेताओं द्वारा लोगों को भ्रमित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक और शब्द है. यह लोग हैं जो नेता बनाते हैं, वंशवाद नहीं.'
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