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चेहरे की सियासत ने डाल दी महागठबंधन में गांठ, बढ़ती जा रही तकरार - lalu yadav

बिहार महागठबंधन में कहने को तो सब कुछ ठीक चल रहा है. लेकिन ऐसे कई मौके रहे, जब आरजेडी अकेले ही सरकार को घेरती नजर आई. यही नहीं, आरजेडी अपनी सहयोगी पार्टियों के फूंके गए बिगुल पर भी शामिल नहीं हुई. कुल मिलाकर महागठबंधन में नेतृत्व और चेहरे को लेकर छिड़ी रार ने आपस में फूट डाल दी है.

चेहरे की रानजीति
चेहरे की रानजीति

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Published : Mar 16, 2020, 11:15 PM IST

पटना: 2020 की सियासी लड़ाई की तैयारी में जुटा महागठबंधन चेहरे की सियासत में आकर उलझ गया है. महागठबंधन के घटक दल राष्ट्रीय जनता दल के तय किए गए नेतृत्व में चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हैं और जिस तैयारी का दावा दूसरे चेहरे के भरोसे करने की बात हो रही है. उस पर दूसरे सहयोगी दल भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. एक दूसरे के भरोसे के भंवर जाल में उलझे महागठबंधन में जिस तरीके से विभेद बढ़ रहा है. उससे चुनाव से पहले ही एक नहीं, कई गांठ पड़ गई हैं.

राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में महागठबंधन अभी तक नीतीश के विरोध की रणनीति को अमलीजामा पहना टी रही है. वजह भी साफ रही है कि विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल की जो संख्या है. उसी का फायदा विपक्ष में शामिल दल उठा भी पा रहे हैं. लेकिन 2020 की तैयारी में जुटे महागठबंधन के घटक दलों को राष्ट्रीय जनता दल का चेहरा राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व दोनों मंजूर नहीं है. एक नहीं, कई मंच पर इस बात की चर्चा हो चली है. बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का चेहरा महागठबंधन में शामिल सभी घटक दलों के सर्वसम्मति से होगा. सवाल यह उठ रहा है कि जिस चेहरे के सियासत के चलते महागठबंधन में गांठ पड़ रही है. वह खुलेगी कैसे? और अगर यह मजबूत होता गयी, तो निश्चित तौर पर विपक्ष इसे अपना हथियार बना लेगा.

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ऐसे चमकी चेहरे की सियासत
बिहार में चेहरे की सियासत की लड़ाई में हर किसी को अपनी बात मजबूत ही दिखती है. तेजस्वी यादव नीतीश के नेतृत्व में उप मुख्यमंत्री रहे. तो जीतन राम मांझी नीतीश के विश्वास पर ही मुख्यमंत्री बने. उपेंद्र कुशवाहा की सियासत को भी उड़ान के पंख नीतीश के साथ रहने पर ही मिले थे. यह अलग बात है कि बीजेपी में जाने के बाद उन्हें केंद्र की गद्दी मिली. लेकिन इन तमाम चीजों के बाद भी चेहरे पर विरोध और विभेद की सियासत बिहार में चलती रही. 2015 के बाद सियासत में शुरू हुई लड़ाई मांझी के बाद तेजस्वी यादव पर आ गई, जब मांझी नीतीश से नाराज होकर अलग हुए थे, तो भाजपा का साथ मिला था. लेकिन भाजपा की नीतियां जब भारी पड़ने लगी, तो तेजस्वी के साथ हो लिए.

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उपेंद्र कुशवाहा भी रेस में!
दूसरी ओर रालोसपा में यही स्थिति उपेंद्र कुशवाहा की रही. नरेंद्र मोदी की 2014 की सरकार में मंत्री तो बने, लेकिन बिहार में सियासत को लेकर मंत्रिमंडल से अलग हो गए. उम्मीद थी कि चेहरे पर बहुत कुछ मिलेगा. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी की मटिया पलीत हो गई. तो राजद के साथ गठबंधन की भूमिका में शामिल हो गए. लेकिन चेहरे पर भरोसा है इसलिए विभेद कम होने का नाम नहीं ले रहा है. राजद में गठबंधन के साथ सबसे पुराने समय से कांग्रेस ही रह रही है. ऐसे में, कांग्रेस की बात सुनना भी लाजमी है. चेहरे की सियासत पर राजद को बड़ा दिल दिखाने की बात कांग्रेस ने तो कह दी लेकिन बड़ी जीत के लिए किस चेहरे पर दांव खेला जाए. इसपर खुद कांग्रेस भी पशोपेश में है.

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कैसे दूर होगी ये महागठबंधन की ये सियासत
बिहार की सियासत में महागठबंधन अपने वजूद को मजबूत कर पाएगा? इस पर सवालिया निशान उठना शुरू हो गए हैं. इन तमाम चीजों के बीच अगर नीतीश के पक्ष को समझा जाए, तो वो और मजबूत होकर उभर रहे हैं. सवाल का उत्तर इसमें है कि मांझी को बिहार की गद्दी नीतीश ने ही दी थी. मांझी बदल गए, राजद के साथ नीतीश ने गठबंधन किया था. लेकिन परिस्थितियां बदल गई. उपेंद्र कुशवाहा नीतीश के साथ थे. लेकिन समय और जरूरत ने राजनीति को बदल दिया. हालांकि, भाजपा में भी ज्यादा दिन नहीं रह पाए. बदलाव वहां भी करना पड़ा और जिस तरह से बिहार की परिस्थिति में राजनीतिक दलों को चेहरे की राजनीति करनी है. उसमें हर कोई पशोपेश में है. गठबंधन में साथ रहना, तो चाहते हैं लेकिन चेहरे की सियासत पर गांठ पड़ जा रही है. अब देखना यह है कि कितनी जल्दी महागठबंधन अपने इस चेहरे की सियासत को ठीक कर पाता है.

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