पटना: बिहार में 1990 से पहले कांग्रेस (Congress) की ही तूती बोलती थी, लेकिन लालू प्रसाद यादव(Lalu Prasad Yadav) की एंट्री ने कांग्रेस का सारा समीकरण बिगाड़ दिया. लालू जैसा चाहते रहे, कांग्रेस की स्थिति वैसी बनती गई और स्थिति तो यहां तक पहुंच गई कि 2010 में कांग्रेस ने एक बार अपने बलबूते 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया. हालांकि जीत केवल 4 सीटों पर ही मिल पाई. 1985 तक कांग्रेस बिहार में मजबूत स्थिति में रही. 323 सीट पर 1985 में चुनाव हुआ था, जिसमें से 196 सीट कांग्रेस को मिली थी. उस समय बिहार-झारखंड एक हुआ करता था, लेकिन उसके बाद कांग्रेस की स्थिति खराब होनी शुरू हो गई. 1990 में कांग्रेस 323 सीट पर चुनाव लड़ी और केवल 71 ही जीत पाई और फिर सीटों के साथ-साथ वोट प्रतिशत में गिरावट का सिलसिला जो शुरू हुआ, वह लगातार जारी रहा.
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पिछले कुछ विधानसभा चुनावों की बात करें तो साल 1985 में कांग्रेस ने 323 सीटों पर चुनाव लड़ा और 196 पर जीत हासिल की. जीत का प्रतिशत 39.35 प्रतिशत रहा. 1990 में 323 सीट पर लड़कर 71 पर जीत प्राप्त की, जीत प्रतिशत 24.86 फीसदी रहा. 1995 में 320 पर लड़ी और मात्र 29 सीट जात पाई. जीत का प्रतिशत घटकर 16.51 फीसदी हो गया. साल 2000 में 324 में से महज 23 सीट ही जाती पाई और जीत का प्रतिशत 11.06 फीसदी रह गया. झारखंड अलग होने के बाद 2005 के चुनाव में कांग्रेस ने 51 पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 9 सीटें ही जीत पाई और जीत का वोट प्रतिशत 29.04 रहा. वहीं, 2010 में 243 सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन 4 सीट ही जीत सकी, जबकि वोट का जीत प्रतिशत 8.37 रहा. वहीं 2015 में महागठबंधन के बैनर तले 41 सीटों पर चुनाव लड़ी और शानदार तरीके से 27 सीटों पर जीत हासिल की. जीत का वोट प्रतिशत 39.49 रहा. जबकि हालिया 2020 के विधानसभा चुनाव में 70 सीटों पर लड़कर मात्र 19 सीटें ही जीत पाई.
सीटों के साथ ही कांग्रेस का वोट प्रतिशत भी हर चुनाव के साथ नीचे जाता रहा. साल 2000 में 5 फीसदी, 2005 (फरवरी) चुनाव में 11.10 और 2005 (नवंबर) में 5 फीसदी, 2010 में 11.10 प्रतिशत, 2015 में 6.66 फीसदी और 2020 में मात्र 9.48 प्रतिशत वोट मिला.
वहीं, लोकसभा चुनाव की बात करें तो 2019 में कांग्रेस ने 9 सीटों पर चुनाव लड़ा था और एक पर जीत हासिल हुई. 2014 में 12 सीटों पर चुनाव लड़ी और 2 सीट पर जीत हासिल हुई. 2000 में कांग्रेस 40 सीटों में से केवल 1 सीट पर जीत हासिल कर पाई थी. उससे पहले 1991 में भी अविभाजित बिहार में कांग्रेस को एकमात्र सीट पर सफलता मिली थी. 1977 में आपातकाल में कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन रहा था. हालांकि उसके बाद स्थिति फिर सुधरने लगी.
1980 में कांग्रेस 54 में से 30 सीट पर जीत हासिल की. 1984 में कांग्रेस 54 में से 48 सीटों पर जीत हासिल की थी और उसके बाद लालू यादव के आने के कारण स्थिति लगातार खराब होती गई. 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन से कांग्रेस के एकमात्र उम्मीदवार को जीत हासिल हुई और महागठबंधन की कांग्रेस ने लाज भी बचाई.
दरअसल, बिहार में कांग्रेस का जो मुख्य वोट बैंक था, उसमें सवर्ण 11 प्रतिशत के आसपास है और मुस्लिम 15 से 16 फीसदी के आसपास है जबकि दलित 14% के आसपास है. इसी आधार वोट बैंक पर अब कांग्रेस की नजर है.
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आज कांग्रेस बिहार में आरजेडी के बैसाखी के सहारे अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करा पा रही है. कांग्रेस की कमजोर होने की बड़ी वजह लालू प्रसाद यादव के आने के बाद दलित और मुस्लिम वोट बैंक खिसकना रहा. वहीं, बीजेपी के मजबूत होने के बाद सवर्ण वोट भी कांग्रेस के 'हाथ' से खिसक गया.
नीतीश कुमार के लालू प्रसाद यादव से अलग होने के बाद लालू की स्थिति भी कमजोर हुई, लेकिन उसके बाद भी कांग्रेस अपने पैर पर खड़ा नहीं हो सकी. क्योंकि नीतीश का बीजेपी के साथ गठबंधन था. ऐसे में कांग्रेस के लिए नीतीश के साथ गठबंधन बनाना संभव नहीं हुआ. 2015 में जरूर महागठबंधन बनाया, जिसमें नीतीश-लालू और कांग्रेस के एक साथ आने के कारण महागठबंधन को प्रचंड बहुमत के साथ जीत भी हासिल हुई. कांग्रेस का स्ट्राइक रेट भी अच्छा हो गया. कुल मिलाकर कांग्रेस दूसरे दलों के सहारे ही बिहार में 1990 के बाद उपस्थिति दर्ज कराती रही है.
पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा कांग्रेस के लिए अंतिम बड़े सवर्ण चेहरा के रूप में जाने जाते हैं. वैसे कांग्रेस ने रामजतन सिन्हा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया फिर तो कौकब कादरी को भी प्रदेश अध्यक्ष के रूप में मौका दिया और उसके बाद अखिलेश सिंह को भी शामिल कराया और अभी मदन मोहन झा प्रदेश अध्यक्ष हैं. कई प्रयोग तो किए गए, लेकिन लाभ नहीं मिला.