पटना:एक बड़ी पुरानी कहावत है कद्दू को देखकर कद्दू रंग बदलता है, लेकिन बिहार की राजनीति (Bihar Politics) में हर एक राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दल को देखकर अपने सियासी रंग को बदल रहा है. पूरे बिहार में जो भी राजनीतिक दल हैं, उनके बीच पदों को लेकर संग्राम मचा हुआ है. चाहे बात जेडीयू (JUD) की हो कांग्रेस (Congress) की हो आरजेडी (RJD) की हो या फिर दूसरे राजनीतिक दलों की, कुछ तो वैसे भी हैं जिनका वजूद ही इसी लड़ाई में खत्म हो गया. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) हैं, जो अरुण सिंह की लड़ाई में पूरी आरएलएसपी गंवा बैठे. एलजेपी (LJP) उसी राह पर है, लेकिन जो आज स्थापित राजनीतिक दल हैं वह भी अब इसमें बिहारी रंग दिखाना शुरू कर दिया है और इसमें सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर अगर कहा जाए तो भाजपा (BJP) भी उसी रंग में रंग गई है.
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सबसे पहले सत्तारूढ़ दलों की बात कर लेते हैं. जनता दल (यू) की बात करें तो राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर प्रांतीय अध्यक्ष तक के चयन में जिस तरह की राजनीतिक स्थितियां बनीं, उसमें एक दौर में बात यहां तक पहुंच गई कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की राजनीति शायद अब इतनी मजबूत नहीं रही कि पार्टी को संभाल पाए. हालांकि बदलते समय ने इस पर ठहराव तो ला दिया है लेकिन विभेद किसके संबंध में है और द्वंद कहां-कहां पड़ रहा है यह तो समय-समय पर सामने आएगा लेकिन फिलहाल ललन सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद बहुत सारे ऐसे पदों की चर्चा खत्म हो गई, जो आरसीपी सिंह, उपेंद्र कुशवाहा, ललन सिंह और नीतीश कुमार के इस दरवाजे से उस दरवाजे तक पद की दौड़ के लिए अलग-अलग सियासी रंग लिए हुई थी.
कांग्रेस की भी कमोबेश स्थिति यही है. प्रदेश अध्यक्ष के चयन को लेकर प्रक्रिया चल रही है लेकिन जब-जब प्रदेश अध्यक्ष की चर्चा हुई है, कांग्रेस का सदाकत आश्रम रण क्षेत्र में बदल गया है. बहरहाल दिल्ली में बैठक चल रही है. मदन मोहन झा का कार्यकाल खत्म हो चुका है. नई तैयारी चल रही है, परिणाम कब तक आएगा, कहना मुश्किल है. वहीं राष्ट्रीय जनता दल (RJD) में लालू यादव (Lalu Yadav) के दोनों बेटे ही लड़े पड़े हैं. पार्टी पर कब्जा कर लेने की आरोप तेज प्रताप यादव (Tej Pratap Yadav) अपने छोटे भाई तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) पर लगा रहे हैं और तेजस्वी की हर रणनीति को आरजेडी में माना जा रहा है. पार्टी तेज प्रताप की हर रणनीति को फेल करने में जुटी है. यह बात 2 सीटों पर हो रहे विधानसभा उपचुनाव को लेकर तैयारी में भी सामने आ गई है.
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बिहार और भारत की सबसे मजबूत और सत्ता चला रही पार्टी की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी भी प्रदेश में इस लड़ाई में कूद पड़ी है. हालांकि अब तक शीर्ष नेतृत्व जिस चीज पर निर्णय ले लेता था, उसमें किसी तरह की शक शुबह नहीं रहता था, लेकिन इस बार जो निर्णय हुआ वह बदल रहा है. शायद बिहार की राजनीति ने बीजेपी की सियासत को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है. जिसमें कोई एक पद बिना विवाद के अंतिम रूप आ जाएगा, यह संभव नहीं है. यूपी के बस्ती से सांसद हरीश द्विवेदी (Harish Dwivedi) को बिहार का प्रभारी बनाया गया. उन्होंने इसकी जानकारी ट्वीट कर दी. बिहार के तमाम बड़े नेताओं ने उन्हें बधाई दे दी, लेकिन अचानक से सब कुछ बदल गया. ट्विटर से ट्वीट गायब हो गया और अब इस बात के कयास बिहार की भाजपा भी लगाने में फेल हो गई है कि आखिर बिहार का प्रभारी है कौन और बिहार के जो प्रभारी बनाए गए थे आखिर उनके साथ हुआ क्या है.
दरअसल, बिहार में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) 2013 में जब प्रधानमंत्री बनने के लिए पहुंचे थे तो बिहार में बहुत कुछ बदलने की बात शुरु हुई थी. कहा जा रहा था कि बिहार में बहुत कुछ बदलेगा. बिहार में बहुत कुछ बदलना है. बिहार में बहुत कुछ बदल दिया जाएगा और बदलने की परिपाटी में वह चीजें आनी शुरू हुई, जिसमें नीतीश कुमार (Nitish Kumar) मोदी मुखालफत में चले गए और बीजेपी में वो लोग आ गए जो लोग नई बीजेपी खड़ी कर सकते थे. भूपेंद्र यादव (Bhupendra Yadav) को बिहार बीजेपी का प्रभारी बनाया गया. 2015 से लेकर 2020 वाले चुनाव में भी अच्छी रणनीति के तहत बीजेपी को परिणाम मिले. अब बीजेपी के लोग यह नहीं चाहते कि जिस तरह के हालात भूपेंद्र यादव ने बनाए हैं या भूपेंद्र यादव की टीम यह नहीं चाहती कि बिहार में जिस तरीके का दबदबा भूपेंद्र यादव ने कायम किया है, वह किसी दूसरे रूप में भटक जाए.
भाजपा के विपक्ष के एक दल से इस बात की जानकारी भी दी गई कि दरअसल बीजेपी में विभेद बहुत बढ़ गया है. उन्होंने कहा कि बस्ती और गोरखपुर के बीच की दूरी बहुत कम है और सबको पता है कि गोरखपुर आज की तारीख में किस सत्ता का केंद्र बना हुआ है. बिहार की राजनीति शायद इसी आधार पर साधने की कोशिश हो रही थी कि बिहार से जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में आना है, उसे उत्तर प्रदेश की राजनीति से ही गया हुआ कोई तय करें. जिस पर गोरखपुर वाले योगी का सीधा प्रभाव हो, क्योंकि इसकी एक कहानी और भी है कि बिहार में जब चुनाव था तो योगी आदित्यनाथ का हेलीकॉप्टर चुनावी रैलियों में खूब उड़ा था. फायदा भी हुआ और बीजेपी की सीट संख्या भी खूब बड़ी थी, लेकिन इसी में सियासी विभेद भी खड़ा हो गया कि इसका श्रेय दिया किसे जाए.
2022 में उत्तर प्रदेश में बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में बस्ती से जिसे बिहार का प्रभारी बनाया गया. उसके जिम्मे में बस्ती जिले से भाजपा को बेहतर परिणाम देना था कि विधानसभा चुनाव में उनके संसदीय क्षेत्र से होता. उन्हें बिहार का प्रभारी बनाया गया तो यह भी होने लगा कि बस्ती से अगर चले गए तो यहां की रणनीति और तैयारी देखेगा कौन. योगी आदित्यनाथ की छाप कहीं ना कहीं गोरखपुर और बस्ती के सभी लोगों पर तो है ही और यह छाप बिहार में भी दिखने लगी तो बिहार के कई ऐसे नेताओं को दिक्कत हो जाएगी जो लोग सिर्फ खुद को देखना चाहते हैं.
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हालांकि अभी तक का आरोप है, लेकिन पक्ष जरा देख लीजिए इसके पीछे की राजनीति क्या हो सकती है. इससे पहले बिहार के लिए चुनाव प्रभारी के तौर पर धर्मेंद्र प्रधान को भेजा गया और धर्मेंद्र प्रधान ने 2014 के चुनाव में बेहतरीन परिणाम दिया भी. 2015 की भी जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान और भूपेंद्र यादव के पास ही रही और चुनाव में नीतीश और लालू के गठबंधन के बाद भी बीजेपी ने बेहतर किया था. 2020 के चुनाव के लिए देवेंद्र फडणवीस को बिहार भेजा गया और भूपेंद्र यादव केंद्र में रहे.
ऐसा पहली बार हुआ है जब जिस राज्य में चुनाव हो रहा हो, वहां के किसी सांसद को बिहार का प्रभारी बना दिया गया हो. वह भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से, जहां मोदी और योगी के विकास की परीक्षा होनी है. माना यह भी जा रहा था कि योगी बिहार की रणनीति को समझना चाह रहे हैं और बिहार से क्या उत्तर प्रदेश लाया जा सकता है, इसे समझने के लिए बिहार को अपने साथ जोड़ना चाह रहे थे लेकिन जिस तरीके से अभी बिहार में प्रदेश प्रभारी को लेकर हालात बने हैं, उसमें पूरा बिहार यह खोज रहा है कि यह जिम्मेदारी है किसके पास. आखिर इस सियासत के पीछे की वजह क्या है, लेकिन एक बात तो साफ है कि पद को लेकर के जिस तरीके से बिहार में सियासी संग्राम मचा हुआ है उसमें बीजेपी भी इसी बहती गंगा में हाथ धो रही है.