पटना: समय-समय पर देश में जातिगत जनगणना (Caste census in India) की मांग तेज होती है, लेकिन यह फिर मंद पड़ जाती है. इस बार भी जाति जनगणना को लेकर क्षेत्रीय पार्टियां मुखर होकर सामने आ रही हैं और सरकार पर दबाव बना रही हैं कि जातिगत जनगणना कराई जाए. इसके विरोध में भी सुर सुनाई दे रहे हैं. सभी जातिगत जनगणना को लेकर अपने-अपने तर्क दे रहे हैं.
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पारंपरिक रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की जनगणना अलग से होती है. यानी जातीय जनगणना से यह तो पता चलेगा कि SC और ST कितने हैं, पर OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) या अन्य जातियों की वास्तविक स्थिति सामने नहीं आएगी. बिहार, महाराष्ट्र, ओडिशा जैसे राज्य जब जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं तो केंद्र सरकार इसे क्यों नहीं करना चाहती है?. आइए समझते हैं इन सवालों के जवाब:
आखिरी बार कब हुई थी जातिगत जनगणना: पिछली जाति आधारित जनगणना 1931 में की गई थी, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया. उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा थे. तब देश की आबादी 30 करोड़ के करीब थी अब तक उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं.
मंडल कमीशन के आंकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. आज भी उसी आधार पर देश में आरक्षण की व्यवस्था है. जिसके तहत ओबीसी को 27 फीसदी, अनुसूचित जाति को 15 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण मिलता है. ऐसे में ओबीसी नेता जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं, जिसके चलते साल 2011 में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस सर्वे (SECC) आधारित डेटा जुटाया था. इसमें करीब 4 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए थे, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया है.
वहीं, जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी है, इसका कोई ठोस प्रमाण फिलहाल नहीं है. हालांकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था. इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आंकड़े को अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है.
केंद्रीय गृहराज्य मंत्री का लोकसभा में बयान : जातीय जनगणना की मांग के बीच 20 जुलाई 2021 को केंद्रीय गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में बताया था कि भारत सरकार ने जनगणना में अनसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) के अलावा अन्य जाति आधारित आबादी की जनगणना नहीं कराने का फैसला किया है, जिसके बाद ही जाति जनगणना कराए जाने की मांग तेज हुई है.
जातीय जनगणना पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र का एफिडेविट क्या? : केंद्र सरकार ने SC में कहा है कि (Affidavit in Supreme Court on caste census) जनगणना में OBC जातियों की गिनती एक लंबा और कठिन काम है. जाति आधारित जनगणना कराना व्यवहारिक नहीं है. यह एक पॉलिसी डिसीजन है, प्रशासनिक नजरिए से भी ऐसा करना बेहद मुश्किल है.
बता दें कि महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन लगाई थी. इसमें केंद्र सरकार को पिछड़े वर्गों (BCC) का डेटा एकत्रित करने के निर्देश देने की मांग की गई, जिससे पिछड़े वर्ग के नागरिकों का आकलन किया जा सके. साथ ही, इस याचिका में केंद्र सरकार से अदर बैकवर्ड क्लासेस (OBCs) पर SECC यानी सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया था, जिसे सार्वजनिक करने की मांग भी की गई.
सरकार SECC के जातिगत आंकड़े जारी क्यों नहीं कर रही? : केंद्र सरकार का कहना है कि पिछली जनगणना का डाटा किसी आधिकारिक इस्तेमाल के लिए नहीं है, ना ही इसे सार्वजनिक किया गया है. ऐसे में जाति से जुड़े मसलों पर राज्य सरकारें इसका इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं. केंद्र का कहना है कि इस डाटा में गलतियां हैं, साथ ही कई जातियों के एक समान नाम कई तरह की दिक्कतें पैदा कर सकते हैं.
क्या राज्य के आंकड़ों की वैधता होगी? : हालांकि, केंद्र ने साफ कर दिया है कि राज्य चाहे तो अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या राज्य के आंकड़ों की क्या वैधता होगी? इस पर रिटायर्ड प्रोफेसर डॉक्टर डी. एम. दिवाकर का मानना है कि जातिगत जनगणना की वैधता राज्यों के लिए हो सकती है. राज्य विकास योजनाओं में आंकड़े का उपयोग कर सकती है. राज्य कर अपने स्तर से जनगणना कराती है तो केंद्र भले ही ना माने लेकिन आंकड़ा राज्य के लिए उपयोगी हो सकता है. बिहार में अभी पमरिया नट और ट्रांसजेंडर की आबादी कितनी है यह किसी को पता नहीं है.
एक्सपर्ट की राय : जानकारों का कहना है कि राज्य सरकार यदि अपने स्तर पर जातीय जनगणना कराती है तो उसकी वैधता नहीं होती. दूसरा राज्य सरकार की रिपोर्ट को केंद्र सरकार मानेगी या नहीं इसे लेकर भी विवाद खड़ा हो सकता है. इसके अलावा अगर बिहार की नीतीश सरकार द्वारा कराई गई जनगणना में जाति की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा संख्या को लेकर भी सवाल खड़ा किये जाने की पूरी संभावना बनी रहेगी.
जातियों की अलग से गणना की जरूरत क्यों हैं? : जाति जनगणना को लेकर एक अहम सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि आखिर जातियों की अलग से गणना की जरूरत ही क्यों हैं? इसका जवाब देते हुए, ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट के प्राध्यापक डॉ बीएन प्रसाद कहते हैं कि जातिगत जनगणना इसलिए जरूरी है कि कल्याणकारी योजनाओं और शिक्षा के क्षेत्र में सरकार योजना बना सकेगी अगर जनगणना हुई तो यह पता चल पाएगा कि कौन सी जाति की संख्या कितनी है और उसको कितनी हिस्सेदारी दी जाए. साथ ही, जातिगत जनगणना से सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ेगा तो दूसरी तरफ इसके दुरुपयोग भी हो सकते हैं. संपन्न वर्ग आंकड़ों का उपयोग अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने में कर सकते हैं.
क्या इससे जातिवाद बढ़ेगा? : जाति जनगणना का विरोध करने वालों के इससे जातीय संघर्ष बढ़ने की संभावनाओं के सवाल पर राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार का मानना है कि जातिगत जनगणना से सामाजिक ताना-बाना बिगड़ेगा. सरदार पटेल भी जातिगत जनगणना के खिलाफ थे. ऐसे में जातिगत जनगणना से समाज में विद्वेष और जातिवाद बढ़ेगा और कुछ लोग इसका इस्तेमाल समाज को बांटने में कर सकते हैं. जाति के आधार पर जनगणना कराने से समाज का भला नहीं होगा.
बिहार में सबसे अधिक हंगामा क्यों? : आखिर बिहार में ही क्यों इस मुद्दे पर सबसे अधिक हंगामा मचा हुआ है ? दरअसल बिहार में आरजेडी और जेडीयू को ही जातीय समूहों से सर्वाधिक ताकत मिलती रही है. लालू यादव वे 1990 में जिस पिछड़ावाद की नींव रखी थी, अब वह बिहार की जरूरत बन गया है. लालू यादव के समय सभी पिछड़ी जातियां एक थीं, इसलिए एक शक्तिशाली नेता बन सके. बाद में नीतीश कुमार ने इसमें विभाजन कर दिया. नीतीश ने 1994 में तर्क दिया कि पिछड़े वर्ग की सभी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है. कुछ खास पिछड़ी जातियां ही इसका फायदा उठा रही हैं. इसलिए कर्पूरी ठाकुर फार्मूले की तर्ज पर पिछड़े वर्ग और अति पिछड़े वर्ग के लिए अलग-अलग आरक्षण तय किया जाय. हालांकि, जब लालू यादव को यह मंजूर न हुआ तो नीतीश कुमार ने अलग हो कर समता पार्टी बना ली थी.