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... कहीं बदलती सियासत के नये फार्मूले का गवाह न बन जाए बिहार! - जेपी

दिल्ली चुनाव में राजनैतिक दलों को समझ में आ गया है कि 2020 में बिहार विधानसभा के लिए सत्ता के हुकूमत की जंग होगी है. इसलिए सियासत का वह रंग एक बार फिर कैनवास पर उतरने की कोशिश शुरू हो गई है कि किस मुद्दे में रखा जाए और किसके चेहरे पर रखा जाए.

bihar assembly election
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Published : Feb 12, 2020, 3:00 PM IST

पटना: बिहार की सियासत में जो लोग गद्दी पर हैं, उनमें सब के पास राजनीति के लिए जेपी के सिद्धांत और सियासत की जमीन है. जेपी के सैद्धांतिक राजनीति से कोई भी अलग जाने की बात नहीं करता. लेकिन जेपी के सिद्धांतों में भारत को गढ़ने का सपना था और दिल्ली की सल्तनत को हिला देने का माद्दा. यह सब कुछ जेपी के सिद्धांतों की विरासत को लेकर राजनीति करने वाले लोग भूल गए हैं. यही वजह है कि जिस बात को लेकर वह दिल्ली गए, उसे दिल्ली वालों ने भी भुला दिया.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में बिहार के तीनों राजनीतिक दल जेडीयू, आरजेडी और लोजपा चुनाव मैदान में थे. खाता खोलने की बात तो दूर जहां सबसे ज्यादा जोर आजमाइश हुई, वहीं पर पार्टी का पूरा दम निकल गया.

लालू प्रसाद यादव, आरजेडी सुप्रीमों

जेपी के सियसत की जमीन की मजमून थी मजबूर
जेपी ने सियासत में जिस जमीन को मजमून बनाया था जो इतना मजबूत था कि दिल्ली की सल्तनत ही हिल गयी. नतीजा यह निकला कि सरकार के डर और सरकार अपने डर के काम को करने के लिए जेल की सियासत पर उतर आई.

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वजूद भर के लिए लड़ रही थी बिहार की राजनीतिक पार्टी
जेपी के उसी सिद्धांत पर खड़ी बिहार की तीनों राजनीतिक पार्टियों की हालत आज सवालों के दायरे में इसलिए आ गयी है कि जेपी ने जो सपना देखा था और जेपी के जिस सिद्धांत को लेकर लालू, नीतीश, रामविलास ने अपने राजनीत का परचम लहराया. वह 2020 में दिल्ली के चुनाव में अपने वजूद भर के लिए ही लड़ता रहा.

नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार

दिल्ली चुनाव में नहीं खुला बिहार के दलों का खाता
दिल्ली में बिहार के दलों का खाता ही नहीं खुला तो चर्चा शुरू हो गई दिल्ली के दिल में जगह नहीं बना पाने की वजह क्या है? बिहार में जेपी के सपने को जिस तरीके से राजनीति में बेचा गया और राजनीति को जिस तरीके से भजाया गया उससे जेपी के नाम की राजनीति ही थक गई. बड़ी वजह यह भी कही जा सकती है कि दिल्ली के लोगों ने ऐसे राजनेताओं को जगह ही नहीं दिया. जिन्होंने सिद्धांतों को बेचकर राजनीति की.

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चेहरे की सियासत में उतना दम नहीं
दिल्ली में केजरीवाल ने जिस तरह जीत की राजनीति का झंडा गाड़ा है उसे सभी राजनीतिक दलों को एक बार फिर से इस विषय पर विचार तो करना ही होगा कि चेहरे की सियासत में इतना दम नहीं है. चौकीदारी करने में अगर चूक हुई तो फिर सत्ता की गद्दी हाथ से चली ही जाएगी. पढ़ाई, कमाई, दवाई के मुद्दे पर सबका साथ सबका विकास नारे में तो मिला, लेकिन हकीकत में अगर विश्वास में नहीं बदला, तो बहुत कुछ बदल जाएगा.

रामविलास पासवान, लोजपा प्रमुख

'नया फार्मूला बिहार भी न बना दे'
यह राजनैतिक दलों को समझ में आ गया है कि 2020 में बिहार विधानसभा के लिए सत्ता के हुकूमत की जंग होनी है. ऐसे में सियासत का वह रंग एक बार फिर कैनवास पर उतरने की कोशिश शुरू हो गई है. किस मुद्दे में रखा जाए और किसके चेहरे पर रखा जाए. क्योंकि मुद्दे के साथ चेहरे को सही ढंग से फ्रेम में नहीं लाया गया तो शायद सियासत में बदलाव के मायने और बदलती सियासत का नया फार्मूला बिहार भी न बना दे.

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