नवादा: आधुनिकता के इस दौर में हम अपने जड़ों से छूटे जा रहे हैं, चाहे वो सखुआ के पत्तल पर खाने की बात हो या फिर इससे जुड़े रोजगार की. लेकिन वक्त बदला पत्तल की जगह थर्माोकोल और प्लास्टिक ने ले लिया. जिसने जंगल और पहाड़ के तराई में बसे गरीबों के जीवनोपार्जन का जरिया छीन लिया. जिसके कारण लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं.
बद से बत्तर होती जा रही है हालत
दरअसल, हम बात कर रहे हैं जिले के अकबरपुर प्रखंड के पहाड़ की तराई में रासलपुरा की. जहां लोगों की आजीविका का साधन सखुआ के बना पत्तल है. लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध में अब पत्तल खरीदने वालों पर किसी की नजर नहीं पड़ती. इसी कारण पत्तल बनाने वाले लोगों की हालत दिन पर दिन बद से बत्तर होती जा रही है. उन्हें दिन रात मेहनत करने के बाद भी न पत्तल बिक पाती है और न मेहनत के मुताबिक दाम मिल पाता है.
'थर्माोकोल और प्लास्टिक के पत्ते ने चौपट किया धंधा'
पत्तल बनाने वाली सुनैना ने कहा कि मिझे इस बात कि चिंता है की अगर हालात ऐसे ही रहे तो उनके बच्चे पढ़ेंगे कैसे? बिटिया की शादी कैसे होगी. एक मां के लिए यह सोचना भी लाजिमी है. क्योंकि सभी मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं. पहले थर्माोकोल और प्लास्टिक ने इनके पुश्तैनी कारोबार को चौपट कर दिया. अब कोरोना काल ने इनके कारोबार को खत्म कर दिया. वहीं, रामविलास ने कहा कि पहले हम लोग पांच-पांच हजार पत्तल 8 दिन में बेच देते थे और 3-4 हजार की कमाई हो जाती थी. जब से यह फाइबर का पता चला है, तब से सब खत्म हो गया. उन्होंने कहा कि बाल-बच्चे भूखे मर रहे है. अगर सरकार फिर से सकवा का पता चला दे, तो हम लोगों का पेट भरना शुरू हो जाएगा.