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रामचरित मानस पाठ का आयोजन, कुश राघवजी महाराज ने सुनाई मर्यादा पुरुषोत्तम की कथा - प्रवचन

कहा जाता है कि भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ था. उनमें से 12 वर्ष उन्होंने जंगल में रहकर ही काटे. 12वें वर्ष की समाप्त के दौरान सीता का हरण हो गया तो बाद के 2 वर्ष उन्होंने सीता को ढूंढने, वानर सेना का गठन करने और रावण से युद्ध करने में गुजारे.

Ramcharit Manas
Ramcharit Manas

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Published : Dec 1, 2020, 8:30 PM IST

कैमूर:जिले के चैनपुर प्रखंड क्षेत्र के चैनपुर बाजार में स्थित हरसू ब्रह्म मंदिर परिसर में श्रीरामचरित मानस का पाठ किया जा रहा है. जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ जुट रही है. पूरे दिन श्रद्धालु यज्ञशाला की परिक्रमा और पूजा-अर्चना कर रहे हैं.

संध्या में भगवान श्रीराम की आरती और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है. जबकि रात्रि में प्रवचन किया जा रहा है. जिसे सुनने के लिए आसपास के दर्जनों गांवों के लोग पहुंच रहे हैं.

राम वनगमन की कथा सुनाई

सोमवार को बक्सर से आए कुश राघवजी महाराज ने राम वनगमन और राम-भरत मिलाप की कथा सुनाई, जिसे सुनकर भक्तगण भाव विभोर हो उठे. महाराज ने कथा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि चारों पुत्रों का विवाह होने के बाद राजा दशरथ ने श्रीराम को अयोध्या का राजा बनाने का निर्णय लिया. यह समाचार सुनकर नगर में खुशियां मनाई जाने लगीं. इसी बीच महारानी कैकेयी ने राजा दशरथ से राम को चौदह वर्ष वनवास का वर मांग लिया.

'राम ने भवसागर पार कराया'
कथा को आगे बढ़ाते हुए राघवजी ने बताया कि पिता दशरथ की आज्ञा पाकर भगवान राम ने जब भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वन के लिए प्रस्थान किया तो पूरी अयोध्या नगरी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी, जिन्हें राम ने वापस किया. जब राम गंगा नदी पार करने के लिए तट पर पहुंचे तो यह खबर सुनते ही निषाद राज केवट खुशी से फूले नहीं समाए और उन्हें नदी पार कराया. वहीं, जब भगवान राम ने उतराई के तौर पर निषाद को मां सीता की अंगूठी दी तो निषाद राज ने कहा, 'हे भगवन जिस तरह मैंने आपको नैया से गंगा के इस पार उतारा है, उसी प्रकार आप मेरी भी नैया को भवसागर से उस पार लगा देना.'

'राम की चरण पादुका लेकर लौटे भरत'
वहीं, राम के वन में जाने के बाद भरत उन्हें मनाने पहुंचे, लेकिन राम ने कहा कि मैंने पिताजी को वचन दिया है कि मैं 14 वर्ष का वनवास पूरा करके ही अयोध्या लौटूंगा. तब भरत बड़े भाई राम की चरण पादुका सिर पर रखकर अयोध्या लौट आए और उन्हें सिंहासन पर रखकर सेवक के रूप में राजकाज संभालना शुरू कर दी.

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