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225 वर्ष बाद भी नहीं बदला मां दुर्गा की प्रतिमा का रंग, भांग का शरबत है यहां का प्रसाद - मां दुर्गा

दरभंगा के बटन तिवारी दुर्गा मंदिर में बंगाली, मिथिला और तांत्रिक विधि से मां दुर्गा की पूजा होती है. 225 वर्षो से एक ही रंग (लाल) और एक रूप की बनी मां दुर्गा देवी की प्रत्येक वर्ष यहां पूजा की जाती है.

बटन तिवारी दुर्गा मंदिर

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Published : Oct 8, 2019, 1:04 PM IST

दरभंगा: जिले के बटन तिवारी दुर्गा मंदिर में बड़ी धूमधाम से मां की पूजा हो रही है. सबसे खास बात यह है कि इस चकाचौंध भरी दुनिया में यहां कोई दिखावा नहीं होता है. बल्कि सादगी के साथ मां दुर्गा की पूजा होती है. बता दें कि पिछले 225 सालों से यहां मां दुर्गा की पूजा हो रही है.

बटन तिवारी दुर्गा मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु मां का दर्शन करने आते हैं. यहां मां दुर्गा की प्रतिमा में कोई बदलाव नहीं होता है. 225 वर्षो से एक ही रंग (लाल) और एक रूप की बनी मां दुर्गा देवी की प्रत्येक वर्ष यहां पूजा की जाती है. लोगों का कहना है की महिसासुर के वध के वक्त मां दुर्गा का जो रूप था उसी रूप और रंग की यह प्रतिमा है. ऐसी प्रतिमा पूरे दरभंगा में और कहीं देखने को नहीं मिलती.

मां दुर्गा की आरती

तीन विधि से होती है मां दुर्गा की पूजा
यहां बंगाली, मिथिला और तांत्रिक विधि से मां दुर्गा की पूजा होती है. लोगों का देवी दुर्गा में अटूट विश्वास है. कहते हैं कि यहां मांगी हुई हर मुराद पूरी होती है. अन्य जगहों की तरह इस मंदिर में मां की आरती सुबह शाम नहीं होती बल्कि सिर्फ एक बार होती है. वो भी रात के 10 बजे. आरती के बाद भांग का शरबतमां को चढ़ाया जाता है. यह महाप्रसाद वहां उपस्थित सभी भक्त ग्रहण करते हैं.

प्रसाद के रूप में मिलता है भांग का शरबत

225 सालों से चली आ रही परंपरा
पुजारी बताते हैं कि 225 साल पहले बंगाल के साधक श्री शंकर दास जी ने मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा शुरु की थी. तब दरभंगा महाराज महेश्वर सिंह ने इस पूजा में 20 रुपये का आर्थिक सहयोग दिया गया. तब से यह परंपरा आज भी जिंदा है. दरभंगा महराज के घर से इस पूजा में आज भी 20 रुपये का ही सहयोग राशि मां बटन तिवारी दुर्गा पूजा में दी जाती है.

जानकारी देते पुजारी

तिवारी परिवार के बड़े पुत्र करते हैं पूजा
शंकर दास जी की समधि आज भी दरभंगा के मशरफ बाजार मोहल्ले में स्थित काली मन्दिर के सामने है. नवमी के रात्रि में आरती के बाद उनके समाधि पर प्रसाद चढ़ाया जाता है. परम्परा के अनुसार तिवारी परिवार के बड़े पुत्र को पूजा करने की यहां जिम्मेदारी होती है. यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है.

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