भागलपुर:आज से 40 साल पहले, बिहार के भागलपुर में जो हुआ. उसने पूरे देश को हिला दिया. आज के युवाओं को भले ही उस कांड के बारे में पता ना हो लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज दर्दनाक मंजर मिटा नहीं है. हम बात कर रहे हैं बिहार पुलिस को दागदार करने वाले अंखफोड़वा कांड के बारे में. इस कांड को लेकर कई फिल्में भी बन चुकी हैं. इनमें से प्रकाश झा की 'गंगाजल' और अमिताभ परासर की 'द आइज ऑफ डार्कनेस' डाक्यूमेंट्री शामिल हैं.
बात उन दिनों की है, जब बिहार में अपराध का केंद्र भागलपुर बन गया था. ऐसे में क्राइम रोकने के लिए पुलिस ने अपराधियों की धर पकड़ शुरू कर दी. लेकिन ये अपराधी रसूख के चलते छूट जाते थे. इसके बाद पुलिस ने जो किया, वो दर्दनाक था. अपराधियों को पकड़ने के बाद उनकी आंखों को तेजाब डालकर जला दिया गया. इस दर्द का मंजर का गवाह आज भी भागलपुर बना हुआ है. पुलिस की इस कार्रवाई के बाद लोगों ने भी तेजाब को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. बिहार में आंख फोड़ने की जो घटनाएं 1980 में शुरू हुईं, वो साल दर साल सामने आती रहीं.
अपराध हुआ नियंत्रित लेकिन
पुलिस की इस तरह की कार्रवाई के बाद जिले में अपराध तो नियंत्रित हो गया लेकिन लोगों को पुलिस का अमानवीय चेहरा भी दिखने लगा. भागलपुर पुलिस के साथ-साथ सरकार पर भी सवाल खड़े होने लगे. इसके बाद सरकार की तरफ से कई बार आंखफोड़वा कांड के पीड़ितों को पुनर्वास के लिए कोशिश की गई. लेकिन काफी दिनों तक पीड़ितों को किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिल सकी. कुल 33 पीड़ितों में से कुछ पीड़ितों को ₹750 पेंशन के तौर पर दिया गया. लेकिन ये पेंशन सरकार बदलते ही बंद हो गई.
उमेश की कहानी बयां करते परिजन
भागलपुर के विश्वविद्यालय के पास साहेबगंज के उमेश मंडल की भी आंख को खोलकर उसमें तेजाब डाल दिया गया था, उसके बाद से उनकी जिंदगी में पूरी तरह से अंधेरा छा गया. उमेश मंडल के बेटे कहते हैं कि उमेश मंडल की पत्नी ही पूरे घर को चलाती थी. उमेश को यदि कानून सजा देता तो उसकी जिंदगी अंधकार भरी नहीं होती.
'खाकी देख डर जाते हैं'
पिता के साथ हुए अमानवीय व्यवहार के बाद उमेश मंडल का बेटा कहता है कि आज भी वो पुलिस को देखते ही सिहर उठते हैं. उमेश मंडल के बेटों की नजर में खाकी की छाप पूरी तरह से मानवीय क्रूरता से भरी हुई है.
अंखफोड़वा कांड पीड़ित उमेश मंडल के पांच बेटे और एक बेटी है. बेटों से बातचीत के दौरान यह पता चला उमेश मंडल की मौत लगभग 10 वर्ष पूर्व ही हो गई है. बेटे बताते हैं कि उनकी जिंदगी काफी दुखद हो गई थी. बच्चों के सहारे ही उमेश सारा काम करता था और एक ही जगह बैठा रहता था.
नहीं सुधरे हालात
उमेश मंडल के बेटों का कहना है कि समाज में कलंकित महसूस करते हैं. सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली. सरकार ने आश्वासन तो बहुत दिए थे लेकिन वो पूरे नहीं हुए. पुनर्वास की बात तो कही गई थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
राम कुमार मिश्रा ने उजागर किया कांड
अंखफोड़वा कांड का उजागर करने वाले सीनियर एडवोकेट राम कुमार मिश्रा बताते हैं कि जुलाई 1980 में अपने कोर्ट में बैठे थे. उसी दौरान दो लोगों को कोर्ट में हाजिर करने के लिए लाया गया. उस समय मैंने देखा कि उनकी आंखों से ताजा खून बह रहा है. जब उन्होंने लोगों से पूछा तब पता चला कि पुलिस ने उनकी आंकों में तेजाब डाल दिया है.
इसके बाद पूरे मामले की चर्चा एसीजेएम और जिला जज से की गई. उस दौरान उन्हें पता चला कि पेशी के दौरान एक या दो नहीं बल्कि कई अभियुक्त ऐसी ही हालत में आ रहे हैं. मामला संगीन होता देख राम कुमार मिश्रा ने सभी की आवाज मुखर की. राम कुमार मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय की वरीय अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी को इस संबंध में पत्र भेजा. कपिला हिंगोरानी उस वक्त पीआईएल के लिए काफी मशहूर हो चुकी एक अधिवक्ता थीं, जिन्होंने इस मामले की जानकारी चिट्ठी से प्राप्त होते ही इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के सामने रखा.
दिए गये जांच के आदेश
उस पत्र पर मुख्य न्यायमूर्ति ने जांच के लिए आदेश दिए, जिसके बाद घटना को सत्य करार देते हुए सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया. 15 पुलिस अधिकारियों को आरोपित बनाते हुए न्यायिक कार्रवाई शुरू हो गई, जिसमें से 14 पुलिस पदाधिकारी ने आत्मसमर्पण कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर सभी पीड़ितों का उपचार करते हुए मुआवजा दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति ने पुनर्वास के लिए भी आदेश दिए. लेकिन सरकार की तरफ से आंखफोड़वा कांड के मुआवजा 750 रुपये प्रति माह की सहायता राशि शुरू कर दी गई, जो कि पिछले वर्ष बंद कर दी गई. मुआवजा के तौर पर सभी 33 पीड़ितों के नाम से 30-30 हजार रुपये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जमा कराए गए थे.
बिहार का अंखफोड़वा कांड काफी पुराना हो चुका है लेकिन इसके पीड़ितों के परिजनों का दर्द आज भी हरा है. पुलिस के बाद लोगों ने अपराधियों को सजा देने के लिए जो हथियार इस्तेमाल किया, उसकी चिंगारी आज भी कहीं-कहीं सुलगती दिखाई देती है. अपराधियों को सजा देना कानून का काम है लेकिन अपराधियों के लिए खुद के हाथों में अपराध लेना, ये कहीं से उचित नहीं है. मानवाधिकार इन्हीं बातों को लेकर आज पुलिस के खिलाफ खड़ा होता है.