भागलपुर: जिले की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि और सिल्क के व्यवसाय पर निर्भर है. भागलपुर में सिल्क का व्यापार सदियों पुराना है. यहां के रेशम का कपड़ा देश और दुनिया में फेमस है. रेशमी साड़ियों का क्रेज महिलाओं में खासकर देखा जाता है. शादी-विवाह हो या ऐसे ही कई और मौके, उसमें सिल्क की साड़ी और सिल्क के कपड़े स्टेटस सिंबल बन चुके हैं. इसीलिए सिल्क के कपड़ों की डिमांड भी खूब है. भागलपुरिया सिल्क का कारोबार नया नहीं है. 14वीं शताब्दी में भागलपुर को 'सिल्क रूट'के नाम से जाना जाता है. भागलपुर में उत्पादित रेशमी कपड़े खासकर तसर सिल्क साड़ी, मटका सिल्क साड़ी, रेशम के बने कुर्ते और दुपट्टों की मांग देश-विदेशों में भी है.
ये भी पढ़ें-बिहार में लगाए जाएंगे 30 हजार सोलर पंप, किसानों को 75% सब्सिडी देने की तैयारी
भागलपुरी सिल्क है लाजवाब
सिल्क साड़ी की शौकीन समाजसेवी जिया गोस्वामी कहती हैं कि भागलपुरी सिल्क साड़ी की अपनी चमक है, पहनने में कंफर्ट और डिजाइन के लिए भी दुनियाभर में प्रसिद्ध है. इसीलिए भागलपुरी सिल्क उनके कलेक्शन में पहली पसंद है. इसे बारहों महीने पहना जा सकता है. वेट में भी काफी हल्की है, साफ-सफाई से लेकर इसे रखने तक में काफी आसानी होती है. जिया गोस्वामी ने बताया कि अपने पसंद के हिसाब से वो यहां पर साड़ी को प्रिंट करवाती हैं. जिसे पहनकर वो काफी गौरवान्वित महसूस करती हैं.
सिल्क साड़ी पर छपाई करते बुनकर ये भी पढ़ें- 'PM से विकास कार्यों पर हुई बात, कोरोना टेस्ट में गड़बड़ी हुई है तो जांच के बाद होगी कार्रवाई'
स्टेटस सिंबल है सिल्क के कपड़े
भागलपुरी सिल्क साड़ियों में हाथ से बनी साड़ी लोगों को ज्यादा पसंद है. सिल्क साड़ियों की शौकीन विम्मी शर्मा ने बताया कि वो ज्यादातर हाथ से काम की हुई साड़ियों को ही पहनती हैं. जो अपनी विशेष डिजाइन के चलते दिखने में भी बिलकुल अलग होतीं है. खास समय में वो ऐसी ही साड़ियों को ही पहनना पसंद करतीं हैं.
'सिल्क' ने बढ़ाई व्हाइट हाउस की शान
भागलपुर सिल्क डेकोरेशन आइटम के लिए भी काफी आकर्षक है. एक रिपोर्ट के अनुसार, भागलपुरी सिल्क का उपयोग व्हाइट हाउस के डेकोरेशन में किया गया है. अमेरिका में 'भागलपुरी सिल्क' के नाम से दुकान तक खुली हुई है. कई देशों में भागलपुरी सिल्क की बेस्ट क्वालिटी की चर्चा भी है.
सिल्क साड़ी का कारोबार
भागलपुर में कुछ साल पहले तक 500 करोड़ का कारोबार होता था. लेकिन महंगाई और अन्य कारणों से इसका बाजार सिमटकर 200 करोड़ तक पहुंच गया है. बुनकर सेवा केंद्र के मुताबिक जिले में अब 3,333 लूम ही चल रहे हैं. जिसपर महज साढ़े तीन हजार बुनकर ही काम कर रहे हैं. एक समय था जब भागलपुर देश के 48 फीसदी परिधानों की आपूर्ति करता था. यहां के लगभग हर मध्य वर्गीय परिवार लूम से जुड़ा हुआ था, लेकिन अब वही बुनकर पलायन कर गए हैं.
रेशमी कपड़ों का मंदा होता कारोबार
बीते कुछ वर्षों में सिल्क का व्यापार धीरे धीरे भागलपुर में मंदा होता गया है. कभी यहां 20 हजार से ज्यादा लूम पर हजारों लोग सिल्क के कपड़े का निर्माण करते थे, लेकिन अब वह पलायन कर गए हैं. यहां के हुनरमंद कलाकार सूरत, मुंबई बनारस, कोलकाता आदि शहरों में जाकर काम कर रहे हैं. कभी भागलपुर के आसपास के कई गांवों की आर्थिक खुशहाली सिल्क उद्योग पर आधारित थी. भागलपुर शहर से सटा नाथनगर, चंपानगर, महाशयड्योढी, बौंसी, पुरैनी जैसे छोटे-छोटे गांव में करोड़ों करोड़ रुपए का माल तैयार होता था. भागलपुर के सिल्क व्यापारी इन कच्चे माल और तैयार साड़ियों का निर्यात विदेशों तक करते थे.
'भागलपुरी सिल्क में क्वालिटी से समझौता नहीं'
सिल्क कारोबारी विनोद शर्मा ने कहा कि भागलपुरी सिल्क का व्यापार कम हो गया है. इसकी मुख्य वजह है सूरत, बनारस सहित अन्य शहरों से यहां आने वाली सिल्क के नाम पर डुप्लीकेट साड़ियां. उन्होंने कहा कि दूसरे शहरों की साड़ियां सस्ती दरों में क्वालिटी से समझौता कर लोग खरीद रहे हैं, जबकि असली भागलपुरी सिल्क क्वालिटी से समझौता नहीं करता. कपड़ों की पहचान रखने वाले इसे देखकर ही समझ जाते हैं कि कौन असली है और कौन डुप्लीकेट. विनोद शर्मा ने बेबसी बयां करते हुए कहा कि उनका कारोबार हैंड क्राफ्ट से है इसलिए रोजाना 10 से 20 साड़ी ही बना पाते हैं और महीने का एक लाख से डेढ़ लाख रुपए तक का ही कारोबार हो पाता है.
बुनकरों का पलायन
भागलपुर के नाथनगर में 90 फ़ीसदी घरों में हैंडलूम चलता था. लेकिन अब गांव के इक्के-दुक्के घरों में ही हैंडलूम रह गए हैं, जहां पर काम किया जा रहा है. बाकी लोग काम की तलाश में बाहर चले गए हैं या जो बचे हैं वो दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करने को मजबूर हैं. अब बहुत कम ही लोग बचे हैं जो सिल्क की साड़ी बनाने में माहिर हैं. यह कला बहुत ही कम लोगों के पास रह गई है.
हैंडलूम पर काम करता कारीगर पावरलूम Vs हैंडलूम
भागलपुरी सिल्क कभी विदेश में हैंडलूम के नाम से जाना जाता था. लेकिन अब धीरे-धीरे उसकी जगह पावरलूम ने ले लिया है. इस पर सबसे ज्यादा असर चीन का रहा. चीन यहां से ही 'कोकून' (रेशम का कीड़ा जिससे धागा बनता है) खरीद कर कम कीमत में सप्लाई देने लगा. जिसके बाद यहां पावरलूम बनाने पर जोर दिया जाने लगा. यही वजह है कि हैंडलूम धीरे धीरे बंद होने लगे. हैंडलूम से बने रेशमी वस्त्र पावरलूम के मुकाबले महंगे होते थे. वहीं हाथ की फर्निशिंग और मशीन की फर्निशिंग में भी काफी अंतर था.
पावरलूम पर काम करता कारीगर बुनकर सेवा केंद्र का अभाव
पूरे भारतवर्ष में 28 बुनकर सेवा केंद्र हैं. बिहार में इकलौता बुनकर सेवा केंद्र भागलपुर में स्थापित है. यहां हालात ऐसे हैं कि उसका भवन अब खंडहर हो गया है. अब भी इस सेवा केंद्र में रंगाई, प्रिंटिंग, बुनाई की ट्रेनिंग होती है. 1974 से लेकर अब तक हथकरघा क्षेत्र के विस्तार और तकनीकी सुधार पर यह केंद्र काम कर रहा है.
भागलपुरी सिल्क के व्यापार पर विदेशी असर
कोरियाई और चीनी धागों के कारण भागलपुरी सिल्क के कारोबार पर भी ग्रहण लग गया. इसका मुख्य कारण है सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बढ़ती सुस्ती. इसके कारण भागलपुरी सिल्क पीछे रह गया. जबकि विदेशी धागों का बाजार तेजी से बढ़ता गया, बता दें कि भागलपुरी सिल्क के नाम पर जो बाजार में कपड़े दिख रहे हैं उनमें अमूमन विदेशी धागों का उपयोग हो रहा है. इसकी जानकारी महकमों को भी है, यही वजह है कि 2012 में 170 करोड़ की लागत से मुख्यमंत्री तथा विकास योजना शुरू की गई थी जो सफल रही.
सिल्क के व्यापार पर राज्य बंटवारे का असर
सिल्क धागे का निर्माण कृषि के क्षेत्र में सेरीकल्चर पर आधारित है. 2000 में बिहार से झारखंड अलग होने के बाद अधिकांश सिल्क के धागे का उत्पादन करने वाला कोकून खेती झारखंड में चला गया. यह भी बुनकरों के पलायन करने की एक वजह रही है.
सरकारी उपेक्षा एक बड़ी वजह
उद्योग विभाग के महाप्रबंधक रामशरण राम ने बताया कि भागलपुर में 200 हैंडलूम और पावर लूम कारीगर हैं. 56 ऐसे बड़े कारोबारी हैं जो धागा देकर कपड़े तैयार करके फिर उसे रंगाई और प्रिंटिंग कर बेचते हैं. ऐसे में बुनकरों को ज्यादा मुनाफा नहीं होता. बिचौलिया ज्यादा मुनाफा उठा लेते हैं और हमारे बुनकर भाई उस से वंचित रह जाते हैं. उन्होंने इस बात को स्वीकारा की भागलपुर में कोकून बैंक नहीं है. इसकी सख्त जरूरत है.
जिस भागलपुरी सिल्क को पहनकर लोग गर्व से फूले नहीं समाते उसे बनाने वाले आज बेहाल हैं. भागलपुरी सिल्क बाजारवाद की भेंट चढ़ती दिखाई दे रही है. जरूरत है उन बुनकरों को सरकारी मदद मुहैया कराने की जो असली भागलपुरी सिल्क की कला को संजोए हुए हैं. ताकि एक बार फिर भागलपुरी सिल्क का मार्केट बुलंदियों को छुए.