भागलपुर: प्रसिद्ध कतरनी किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पूरे देश भर में कतरनी की सुगंध को लोग भली-भांति जानते हैं. प्राचीन काल से ही यहां के प्रसिद्ध चांदन और चंपा नदी के किनारे कतरनी की खेती की जाती रही है. जगदीशपुर इलाके में खासतौर पर तैयार की जाने वाली कतरनी समय के साथ-साथ धीरे-धीरे एक खास दायरे में सिमटती जा रही है. आलम यह है कि जिस इलाके में लोग कतरनी की खेती करते थे, वे लोग अब साग-सब्जी और आम का उत्पादन कर रहे हैं.
बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर ने एक खास किस्म की कतरनी का इजाद किया है. इसका दाना थोड़ा छोटा और मोटा होता है, जबकि पहले की कतरनी पतली और लंबी हुआ करती थी, जिसकी खासियत स्वादिष्ट होने के साथ-साथ दूर-दूर तक फैलने वाली खुशबू भी थी. लेकिन अब यह पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है.
मकर संक्रांति एवं आम के दिनों में बढ़ती है मांग सिमट गई कतरनी की खेती
हालांकि कुछ लोग अपनी पुरानी परंपरा को अपनी अहम जिम्मेदारी समझते हुए इसे आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इन्ही में से एक है पुतुल पांडे. कतरनी की खेती जितने बड़े खेतों में की जाती है उस हिसाब से कतरनी धान का पैदावार बहुत ही ज्यादा कम होता है. 0.081754681 भूमि में लगभग 8 क्विंटल कतरनी की खेती होती है और इसके धान के पौधे भी काफी संवेदनशील होते हैं. कतरनी खराब मौसम के उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त नहीं कर सकती है और फसल जल्द खराब हो जाती है. कभी हजार एकड़ से ज्यादा में पैदा होने वाली कतरनी धान अब लगभग 300 एकड़ भूमि तक सिमट कर रह गई है.
हर 3 साल में बदली जाती है कतरनी
किसान एक बार बीज को खरीद कर 3 साल तक लगातार उसी बीज से कतरनी का उत्पादन करते हैं. 3 साल के बाद अगर उसी बीज से फिर किसान कतरनी का उत्पादन करेंगे तो काफी ज्यादा मोटा कतरनी का धान का पैदावार होने लगती है. इसलिए हर 3 साल में किसान कतरनी के बीज को बदल देते हैं, फिर से नए बीज से कतरनी की खेती करते हैं.
सिंचाई व्यवस्था की मांग
अवैध बालू उठाव की वजह से चांदन नदी पूरी तरह से मृत प्राय हो गई है. इस कारण जगदीशपुर के किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. किसान पूरी तरह से बारिश पर निर्भर हो गए हैं. बारिश होती है तो किसान की फसल अच्छी होती है और अगर बारिश नहीं हुई तो किसानों की लाखों की फसल बर्बाद हो जाती है. इसलिए इलाके के किसान ने हमेशा चेक डैम बनवाने की मांग की है. सीमित सिंचाई के साधन की वजह से कतरनी पूरी तरह से प्रभावित हो जाती है. लेकिन अभी तक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है.
कतरनी को मिला है जियो टैग
केंद्र सरकार ने 2017 में भागलपुर की कतरनी को जियो का (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिया था. इसका उद्देश्य बाजार में उत्पादों को प्रमुखता दिलाने का था. लेकिन, राज्य सरकार की उदासीनता ने कतरनी को विलुप्त होने के कगार पर ला दिया है. किसान भी करीब 10 सालों से सरकार की तरफ उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकार सिंचाई की कोई समुचित व्यवस्था करेगी ताकि कतरनी पुराने अंदाज में लौटकर पूरे देश में अपनी खुशबू बिखेर सके.