बेगूसरायः वैसे तो आमतौर पर लोग अपने लिए जीते हैं और अपनों की सोचते हैं. लेकिन कुछ कर गुजरने का जुनून रखने वाले लोग अपना सब कुछ लुटा कर भी देश सेवा और समाज सेवा को प्राथमिकता देते है. ऐसे ही एक शख्स हैं बरौनी खेलगांव के संजीव सिंह, जिन्होंने अपना करियर दांव पर लगाकर इस गांव की बेटियों को फुटबॉल में प्रशिक्षित करने में जुटे हैं. इस गांव को और यहां की बेटियों को नई पहचान दिलाई. उन्होंने सरकारी सेवा को तिलांजलि देकर समाज सेवा को चुना.
संजीव सिंह ने फुटबॉल के लिए छोड़ी नैकरी
दरअसल, संजीव सिंह आर्मी में नौकरी करते थे. लेकिन फुटबॉल के प्रति उनका आकर्षण इस कदर हावी था कि उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी. गांव आकर उन्होंने लड़के और लड़कियों को फुटबॉल में प्रशिक्षित करने के लिए इकट्ठा किया. गांव के मैदान पर छोटे स्तर से इसकी शुरुआत हुई और प्रशिक्षण के दौरान लड़के और लड़कियों में कोई फर्क नहीं किया गया. जिस वजह से इस गांव की बेटियों ने भी फुटबॉल में अपना दमखम दिखाना शुरू किया.
फुटबॉल की प्रैक्टिस करती लड़कियां लड़कियों ने फुटबॉल खेल किया बिहार का नाम रोशन
वर्तमान समय में गांव की 50 से ज्यादा लड़कियां इस मैदान पर फुटबॉल खेल रही हैं और दो दर्जन से ज्यादा लड़कियों ने फुटबॉल खेल के जरिए बिहार और देश का नाम रोशन किया है. साथ ही विभिन्न सरकारी विभागों में नौकरी हासिल करने में सफलता पाई. फुटबॉल खेल और लड़कियों के उम्दा प्रदर्शन के बदौलत अब इस गांव का नाम खेलगांव है. संजीव सिंह के अथक प्रयास से ही वर्ष 2018 में इसी खेल मैदान पर संतोष ट्रॉफी जैसे बड़े और भव्य आयोजन का बेगूसराय को मौका मिला. उस दौरान देश के प्रसिद्ध फुटबॉलर बाईचुंग भूटिया 3 दिनों तक बेगूसराय में रहकर टूर्नामेंट की मॉनिटरिंग के साथ-साथ यहां की महिला खिलाड़ियों को प्रशिक्षित करते रहे.
महिला फुटबॉल टीम का गठन
फुटबॉल कोच संजीव सिंह बताते हैं की फुटबॉल उनके रोम-रोम में बसा हुआ है. यही वजह है कि वह फुटबॉल को आगे बढ़ाने के लिए लगातार 13 वर्ष की उम्र से प्रयासरत हैं. 2 फरवरी 1974 ई. में संजीव सिंह के प्रयास से खेल गांव में महिला फुटबॉल टीम का गठन हुआ था. तब से लेकर आज तक दर्जनों महिला खिलाड़ियों ने इस मैदान पर प्रशिक्षण हासिल कर बिहार और देश का नाम रोशन किया है.
'महिलाओं को सामाजिक विरोध का करना पड़ा सामना'
इस बाबत संजीव सिंह बताते हैं कि 27 वर्ष पूर्व जब इस गांव में महिलाओं ने फुटबॉल खेलना शुरू किया, तो आप समझ सकते हैं कि किस तरह सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा होगा. लड़कियों के मां बाप किसी कीमत पर लड़कियों को फुटबॉल खेलने देने को तैयार नहीं थे. लेकिन अपनी गारंटी पर लड़कियों के मां-बाप का पैर पकड़कर मैंने उन्हें मनाया और और दिन रात मेहनत कर लड़कियों को प्रशिक्षित कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया. अभी स्थितियां बदली हैं और जब से इस गांव की 2 दर्जन से ज्यादा लड़कियों ने फुटबॉल के जरिए सरकारी नौकरी हासिल की है, तब से सामाजिक बदलाव तेजी से हुआ है. अब लड़की के माता-पिता स्वयं आकर टीम का हिस्सा बनने की बात करते हैं. उन्होंने कहा इस गांव में बेटे बेटियों में फर्क नहीं है. यहां की बेटियां वो सब कुछ कर सकती हैं जो बेटे सोच नहीं सकते.
'आर्थिक तंगहाली के कारण कई बार रोका गया फुटबाल प्रशिक्षण'
संजीव सिंह ने ईटीवी भारत से विशेष वार्ता के दौरान सरकारी उपेक्षा का दर्द भी बयां किया. उन्होंने कहा कि किसी भी बड़े मुहिम के लिए आर्थिक आभाव पैर की जंजीर बन जाती है. यही मेरे साथ भी हुआ. आर्थिक तंगहाली के कारण कई बार फुटबॉल प्रशिक्षण रोकना पड़ा. लेकिन लाख प्रयास के बावजूद भी बिहार सरकार की ओर से आज तक एक रुपये का सहयोग यहां के खिलाड़ियों को नहीं मिल पाया. अगर सरकार खिलाड़ियों को सहयोग और तकनीकी प्रशिक्षण मुहैया करा दे. तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बेगूसराय की बेटियों में वह दम है कि वह देश की किसी भी टीम को परास्त कर सकती है. वहीं, उन्होंने कहा कि वर्ष 2005 से लेकर 2012 तक बिहार महिला टीम का जो गठन होता था. तो 11 सदस्यीय टीम में 7 खिलाड़ी बेगूसराय जिले से होते थे.