पटनाःबिहार की राजनीति (Bihar Politics) जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है. पार्टी के संगठन से लेकर चुनाव के समय उम्मीदवारों के चयन में भी जातीय समीकरण का ही ख्याल रखा जाता रहा है. यही कारण है कि आज जातीय जनगणना (Caste Census) के मुद्दे पर क्या पक्ष और क्या विपक्ष सब एक साथ दिख रहे हैं. बीजेपी (BJP) जो जातीय जनगणना का विरोध करने लगी थी, अब वह भी वोट बैंक की राजनीति में झुकती नजर आ रही है.
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बता दें कि बिहार में ओबीसी का वोट बैंक सबसे बड़ा है. सभी दल ओबीसी पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं. इसलिए जातीय जनगणना बिहार में एक बड़ा मुद्दा बन गया है. राजनीतिक जानकार भी इसे वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ नहीं मानते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार की जनसंख्या 10.38 करोड़ थी. हालांकि अब 12 करोड़ से अधिक हो चुकी है. 2011 की जनगणना के अनुसार 82.69% आबादी हिंदू और 16.87% आबादी मुस्लिम समुदाय की थी. इस आबादी में 17% सवर्ण, 51% ओबीसी, 15.7% अनुसूचित जाति और करीब 1 फीसदी अनुसूचित जनजाति थी. बिहार में 14.4% यादव, 6.4% कुशवाहा, 4% कुर्मी, वैश्य 8%, भूमिहार 4.7%, ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2% और का कायस्थ 1.5% हैं.
बिहार विधानसभा 2020 में एनडीए और महागठबंधन के दल टिकट बांटने में जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखा था. विभिन्न दलों के जीते प्रत्याशियों में जातियों का कुछ इस प्रकार से हिसाब किताब रहा. सबसे अधिक 54 यादव, 39 दलित, 20 वैश्य, 46 पिछड़ा अति पिछड़ा, 64 सवर्ण और 20 मुस्लिम थे.
पार्टियों की स्थिति कुछ इस प्रकार से रही थी. बीजेपी के 74 जीते प्रत्याशियों में यादव 7, भूमिहार 8, राजपूत 17, ब्राह्मण 5, कायस्थ 3, ईबीसी 4, वैश्य 14, कुर्मी कुशवाहा 6, एससी-एसटी 10 थे. जदयू के जीते 43 प्रत्याशी में सवर्ण 9, दलित 8, यादव 6, पिछड़ा अति पिछड़ा 20 थे.
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आरजेडी के जीते 75 प्रत्याशियों में यादव 36, कुशवाहा 6, वैश्य 3, राजपूत 5, भूमिहार एक, ब्राह्मण दो, अति पिछड़ा 5, दलित 8, मुस्लिम 9 थे. कांग्रेस के जीते 19 उम्मीदवारों में राजपूत 2, भूमिहार 3, ब्राह्मण 3, दलित 4, यादव 11, मुस्लिम 4, अनुसूचित जाति एक थे.
माले के जीते 12 उम्मीदवारों में कुशवाहा 4, यादव दो, दलित 3, मुस्लिम एक, वैश्य दो थे. सीपीएम के जीते दो प्रत्याशियों में से कुशवाहा एक, यादव एक थे. सीपीआई के दो जीते उम्मीदवारों में से भूमिहार एक, दलित एक थे. एआईएमआईएम के जीते 5 प्रत्याशियों में से मुस्लिम 5 थे.
ओबीसी वोट बैंक को लेकर आरजेडी और जदयू दोनों सबसे अधिक दावेदारी करता रहा है. वोट बैंक के हिसाब से बिहार में पिछड़ा और अति पिछड़ा सरकार बनाने और सरकार बिगाड़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इसलिए जातीय जनगणना और खासकर ओबीसी की जनगणना पर सबकी नजर है.
'यह वोट बैंक की राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है. यदि ऐसा नहीं होता तो आर्थिक आधार पर ही जनगणना कराते. क्योंकि सभी वर्ग और जाति में गरीबी है. लेकिन वोट की सबको राजनीति करनी है. यह अब सभी दलों की मजबूरी भी बन गई है. जातीय जनगणना का बीजेपी लगातार विरोध कर रही थी. लेकिन अंत में वह भी झुकी. भले ही इसमें भी कोई चाल क्यों ना हो. मुख्यमंत्री के साथ जो शिष्टमंडल मिलेगा, उसमें बीजेपी के बिहार में दो-दो उपमुख्यमंत्री अति पिछड़ा वर्ग से हैं. लेकिन किसी को शामिल नहीं किया गया. एक महादलित से आने वाले मंत्री राम जनक को जाने का मौका दिया गया है'-रवि उपाध्याय, वरिष्ठ पत्रकार
'जदयू जाति की राजनीति नहीं करती है. विकास की राजनीति करती है. जातीय जनगणना की मांग भी बिहार में विकास को लेकर पार्टी कर रही है. मुख्यमंत्री इसे आज से नहीं कई साल पहले से उठा रहे हैं. इसका चुनाव से और वोटों के ध्रुवीकरण से कोई लेना देना नहीं है. इसलिए हम लोग पूरी आशान्वित हैं कि केंद्र सरकार हमारी मांग पर विचार करेगी.'-अभिषेक झा, प्रवक्ता, जदयू
बिहार में क्षेत्रीय दल का कोर वोट बैंक भी कुछ जातियां ही रही हैं. राजद का कोर वोट बैंक यादव तो नीतीश कुमार के जदयू का कोर वोट बैंक कुर्मी-कोइरी है. जीतन राम मांझी और लोजपा का एससी-एसटी है. राष्ट्रीय दलों की नजर भी खास वोट बैंक पर रही है. यही कारण है कि बिहार में जातीय राजनीति चुनाव के समय खुलकर सामने आ जाती है. जातीय जनगणना की मांग के पीछे पार्टियों का वोट बैंक खोने का डर भी है. हालांकि कोई भी दल खुलकर जाति की राजनीति करने का दावा भी नहीं करता है.
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