हैदराबाद : हम जानते हैं कि रावण अहंकारी, बुरा और दुराचारी असुर सम्राट था. भले ही रावण कितना ही राक्षसी प्रवृत्ति का क्यों न रहा हो, पर उसके गुणों को अनदेखा नहीं किया जा सकता. ऐसा माना जाता है कि रावण भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था, वह महाप्रतापी, महातेजस्वी, पराक्रमी तथा विद्वान था. ज्ञान का अथाह भंडार था, रावण और उसके जैसा विद्वान पंडित इतिहास में न कभी हुआ था और शायद ही कभी होगा. रावण के माता-पिता भी अपने-अपने कुल और सामाजिक परिवेश में एक विशिष्ट स्थान रखते थे.
सारस्वत ब्राह्मण पुलत्स्य ऋषि का पौत्र था रावण, राक्षसी माता कैकसी और ऋषि विश्रवा की संतान रावण ने अपनी छाप विभिन्न हर क्षेत्र में छोड़ी. ऋषि और राक्षसी माता-पिता की संतान होने कारण दो परस्पर विरोधी तत्वों ने रावण के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डाला, इसलिए महाप्रतापी, महातेजस्वी, पराक्रमी तथा विद्वान होने के बावजूद भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, हिंसा जैसे अवगुणों ने रावण से स्वयं और उसके कुल का नाश करवा दिया. राम जी ने लक्ष्मण को रावण के पास नीति ज्ञान ग्रहण करने के लिए भेजा था.
महर्षि वाल्मीकि रावण के गुणों को स्वीकारते हुए उसे चारो वेदों का महान ज्ञाता और विद्वान बताते हैं, जब हनुमान जी रावण के दरबार में प्रवेश करते हैं, तब के बारे में महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है कि...
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
रावण को देखते ही हनुमान जी मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि 'रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षण युक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता'
सब ने अकबर के नवरत्नों के बारे में सुन रखा है, जिनमें उस काल के सभी श्रेष्ठ विद्वान लोग थे. इस तरह की परंपरा की नींव रावण ने ही रखी थी, रावण के दरबार में सभी बुद्धिजीवी, कुशल कारीगर, श्रेष्ठजन थे, रावण ने उनको अपने आश्रय में रखा था. रावण ने स्वयं सीता को अपना जो परिचय दिया था, वह उसके ज्ञान, श्रेष्ठता, पराक्रम का बखान था.