पटना:बिहार में बेटियों को लेकर जो रिपोर्ट (Daughters Population in Bihar) आई है, वह निश्चित तौर पर गर्व का विषय है. प्रति 1000 पुरुषों पर 1090 बेटियों (1090 Daughters per 1000 Men) का होना बिहार जैसे राज्य के लिए ही संभव है. इस आंकड़े को लाकर बिहार ने विश्व के फलक पर वह कीर्तिमान स्थापित कर दिया जो सृष्टि की संरचना का मूल आधार है. इसके बिना इस सृष्टि की संरचना भी नहीं की जा सकती चाहे वह संबंधों के जिस स्वरूप में हो.
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बेटियों पर बिहार के आंकड़े के आने के बाद निश्चित तौर पर बिहार में उत्साह मनाने का विषय है, उल्लास मनाने का विषय है, हर्ष से इतराने का विषय है. आबादी की जो लिस्ट महिलाओं की जारी हुई है, पहली बार ऐसा हो रहा है जिसके लिए उत्सव मनाने का सबका मन कर रहा होगा. इस बात में विभेद या गुरेज चाहे जो हो कि 2005 में नीतीश कुमार के गद्दी पर बैठने के बाद महिलाओं के लिए जो काम किए गए लड़कियों को लेकर जिस तरह की बातें की गईं, बिहार ने जिस तरीके से उसे अंगीकार किया.
सरकारी योजनाओं ने बनाया स्वावलंबी
उससे एक बात तो साफ है कि बिहार ने बदलाव की एक बड़ी कहानी लिख दी. विषय राजनीतिक संबंध से तो नहीं जुड़ा है लेकिन राजनीति इसलिए भी इसमें थोड़ी सी जगह पा रही है कि 2005 में जो बेटियां 7 साल की थी आज वह बिहार के लिए नीतियां बनाने लायक हो गई हैं. उनके लिए जिस शैक्षणिक आधार को रखा गया था, पढ़ाने की जिस बात को कहा गया था पढ़ने की जिस बात को कहा गया था साइकिल पोशाक योजना की जो बात कही गई थी, उसने उन बेटियों को एक स्वावलंबन दिया. आधार इतना मजबूत किया कि आज बिहार इस चीज को मानने लगा है कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है. जिसका परिणाम सरकारी आंकड़ों में उस गणना के साथ आ गया जिसमें बिहार ने विश्व फलक पर कीर्तिमान स्थापित कर दिया.
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समाप्त हो रही दकियानूसी सोच
समाज का एक स्वरूप यह भी है और इससे इनकर नहीं किया जा सकता कि घर चाहे जितना पढ़ा लिखा हो, आर्थिक संपन्नता चाहे जितनी बड़ी हो लेकिन बेटियां घर में पैदा होती है तो बाप का कंधा झुक जाता है. समाज में उसे जिम्मेदार बना दिया जाता है कि उसके ऊपर बोझ है. बेटी का एक कर्ज है जो उसकी शादी तक इस रूप में रहता है कि कैसे भी करके उसे बेहतर जीवन मिले.