पटना: बिहार में राजनीति (Politics in Bihar) ने विगत 24 घंटे में यू-टर्न लिया है. बिहार में 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में जातीय गुणा-गणित का जो खेल चल रहा था, उसमें हर नेता अपने को जातियों का मालिक बता रहा था. लेकिन 24 घंटे में बदली राजनीति ने अब राजनेताओं को जनता को मालिक बोलने पर मजबूर कर दिया है.
ये भी पढ़ें: पुराने रंग में लौटे नीतीश, दिखाया लालू राज का आइना
दरअसल, यह बदलाव बिहार मेंलालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के आने के बाद हुआ है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि लालू यादव के सोशल इंजीनियरिंग में किसी एक नेता के जाति पकड़ की बात टिकती नहीं है. यही वजह है कि नेता जो खुद को जातियों का मालिक और उनका रहनुमा बताते थे अब उन्होंने जनता को अपना मालिक बताना शुरू कर दिया है. वजह साफ है कि 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में किसी एक राजनीतिक दल को जाति नहीं जनता ही जीत दिलाएगी. इसलिए जातियों के मालिक अब जनता को मालिक बनाने शुरू कर दिए हैं.
जब भी बिहार में चुनाव आते थे तो बिहार में राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं की ऐसी हनक होती थी कि पार्टियों की तूती बोलती थी. उसमें धनबल, जाति बल और बाहुबल सिर चढ़कर बोलता था. लेकिन बदले राजनीतिक हालात और चुनावी प्रक्रिया ने इसमें बहुत कुछ बदल दिया है. बाहुबल और धनबल पर तो अंकुश लगा है लेकिन जाति बल के रहनुमा अभी भी अपनी बात रखने से बाज नहीं आते. कहीं पर भी उपचुनाव की बात होती है या चुनाव की बात किसी राज्य में होती है तो सबसे पहले सीट किस जाति को दी जा सकती है, इसी की चर्चा शुरू होती है.
यही चर्चा सीट पर उम्मीदवार देती है. कुछ मजबूरी परिसीमन का भी कहा जा सकता है कि निर्वाचन आयोग ही कुछ सीटों को आरक्षित कर दे रहा है. अगर आरक्षण की बात से थोड़ा अलग जा करके देखें तो हर जगह पर जातियों के मालिक अपनी दुकान खोल कर बैठे हैं. जैसे ही सीट देने की बात आती है, अपनी जाति का सामान बेचने के लिए हर जाति का ठेकेदार सामने खड़ा हो जाता है. बिहार की राजनीति में जाति को मालिक बताने वाले कम नहीं है. अगर शुरू से इसे देखा जाए तो बिहार में कभी कांग्रेस की तूती जातियों पर ही बोलती थी. लालू यादव का सोशल इंजीनियरिंग काफी मजबूत था और बिहार में लालू को जिताने के लिए जिन निकला करता था.
ये भी पढ़ें: लालू के सामने बड़ी चुनौती... क्या दोनों बेटों के विवाद सुलझा सकेंगे राजद सुप्रीमो ?
जब नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आए तो वहां भी जातियों का बोलबाला खूब रहा. यही वजह है कि दलित-महादलित भी चुनावी मुद्दे का हिस्सा बन गए और नीतीश का जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) पर किया गया प्रयोग बिहार की राजनीति का बहुत बड़ा जातीय राजनीति की परिपाटी का स्तंभ लेख हो गया. अब हर जगह हर सीट और हर चुनाव के लिए जातीय गिनती के बाद ही बात आगे बढ़ती है. इसे गिनाने में भी नेता पीछे नहीं रहते लेकिन पिछले 24 घंटे में बिहार की सियासत ने जिस तरीके से करवट लिया है, उसमें हर नेता के मुंह से जाति कि नहीं जनता की बात निकलनी शुरू हो गई है. जो बिहार में इस बात को शायद स्थापित कर रही है कि सभी राजनीतिक दलों को यह लगने लगा है कि अगर जाति की दुहाई देते रहे तो शायद जनता मुंह फेर ले.
लालू यादव को रविवार को पटना पहुंचे तो बात शुरू हो गई कि क्या लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे. जब विपक्षी दलों को इस बात की जानकारी हो गई कि लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे तो जाति का चेहरा लेकर चलने वाले तमाम नेताओं की दुकान बंद सी होती दिख रही है. सबसे पहले जनता दल यूनाइटेड ने इस बयान दिया कि जनता मालिक है, उसे जो करना है करेगी क्योंकि मुकेश साहनी वाली मल्लाह सियासत अब दरकिनार हो जाएगी.