पटना: बिहार जब सियासत की बड़ी बानगी लिखता है तब दिल्ली की सियासत हिलने लगती है. यह पहली बार नहीं, कई बार हो चुका है. बात जेपी के आंदोलन (JP movement) की हो या फिर जाति की सियासत की. बिहार ने जब-जब राजनीति की कोई दूसरी परिभाषा दी है, दिल्ली में बैठे लोगों का दिमाग बेकाबू होने लगता है. बात मंडल कमीशन (Mandal Commission) और तत्कालीन पीएम वी पी सिंह (Vishwanath Pratap Singh) की हो या फिर जेपी आंदोलन से निकले नेताओं के आज वाली जाति की राजनीति की. दिल्ली के लिए परेशानी हमेशा बढ़ी है.
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बिहार से जाति जनगणना (Caste Census) को लेकर जिस तरीके से पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के साथ रहने वाले दल और विपक्ष की सियासत में खड़े लोगों ने एकजुट होकर बात की है और निर्णय लेने के लिए प्रधानमंत्री को अधिकृत कर दिया गया है. उससे एक बात तो साफ दिख रहा है कि बिहार की तरफ आने वाली दो इंजन की राजनीति में से एक इंजन की रफ्तार धीमी पड़ने लगी है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री से बिहार के नेताओं के मिलने के बाद भी अभी तक जाति पर कोई अंतिम फैसला नहीं हो पाया है.
दरअसल, जाति पर जनगणना एक ऐसा तुरूप का पत्ता उन नेताओं के हाथ लग गया है, जो लोग बिहार की गद्दी पर तो आए लेकिन जाति की सियासत में विकास भुला बैठे. अब जब गद्दी ऐसे नेताओं को भूलने लगी है तो फिर जाति की चाशनी को लगाकर सियासत चमकाने की कोशिश शुरू हो गई है. सियासतदानों को यह लग रहा है कि जाति पर राजनीति हो जाए तो एक बार फिर राजनीतिक वजूद खड़ा हो जाएगा. बिहार के लोग अब यह कहने लगे हैं कि बिहार ने अपनी बात रख दी है, निर्णय तो प्रधानमंत्री को लेना है. लेकिन दिल्ली पहुंची सियासत ने जाति को लेकर आज तक कोई बड़ा निर्णय लेने का जोखिम ही नहीं उठाया. आजाद भारत में जाति जनगणना की बात तो कई बार हुई लेकिन जनगणना कराने को लेकर किसी प्रधानमंत्री ने हिम्मत नहीं जुटाई.
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अगर बात जाति जनगणना की करें तो भारत में सबसे पहले 1931 में जाति जनगणना हुई थी. ब्रिटिश सरकार में जाति जनगणना हुई और वह प्रकाशित भी हुई. हालांकि उसके 10 साल बाद 1941 में भी ब्रिटिश हुकूमत ने जाति जनगणना कराई लेकिन देश में हो रहे आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों की इतनी हिम्मत ही नहीं हो पाई की जाति जनगणना को फिर से प्रकाशित कर पाएं. अंग्रेजों की हर चाल के बाद भी देश की आजादी के दीवानों ने इस तरफ मुड़ कर देखा भी नहीं और 1947 में भारत आजाद हो गया.
देश में सियासत जब तक इस बात की होती रही कि बंटवारे का दर्द कम हो, लेकिन सियासत है, समय देखकर जगह बना ही लेती है. एक बार फिर जाति जनगणना ने जोर पकड़ा तो 1957 में लीलावती कमेटी (Lilavati Committee) बना दी गई. जनगणना तो हुई पर प्रकाशित नहीं हो पाई क्योंकि इंदिरा गांधी के समय तक किसी भी प्रधानमंत्री की इतनी हिम्मत ही नहीं हो पाई जो जाति जनगणना को प्रकाशित कर पाए. 1980 में मंडल कमीशन की एक रिपोर्ट जरूर ओबीसी को लेकर आई थी. इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री बनने के बाद भी दी गई लेकिन उन्होंने इसे प्रकाशित करना भी उचित नहीं समझा.