पटना:कहा जाता है किबिहार की राजनीति (Bihar Politics Caste Based) देश की राजनीति तय करती है. लेकिन यहां की राजनीति शुरू से ही जाति आधारित होती आ रही है. कहने को तो बिहार में विकास हो रहा है, लेकिन यहां जाति से ऊपर उठकर राजनीति अभी तक तो नहीं ही पाई है. आगे भी इसी तरह की राजनीति होती दिख रही है. इस मामले में ना तो कोई भी पार्टी रिस्क लेना ताहती है और ना उनके लिए विकास की राजनीति कोई मायने रखती है.
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जाति आधारित राजनीति पार्टियों पर हावी:पहले बिहार में आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद (RJD Supremo Lalu Prasad) एमवाई फर्मूला (मुस्ल्मि और यादव वोट बैंक) के तहत बिहार में अपनी पार्टी को चरम पर पहुंचाया, अब उनके बेटे तेजस्वी यादव आरजेडी को ए टू जेड की पार्टी बनाने में लगे हैं. वहीं, बीजेपी और जेडीयू का भी वही कमोबेश हाल है. रही बात बीजेपी की तो उसे सवर्णों की ही पार्टी कहा जाता है. लेकिन, अब उससे वो समाज दूर जाता दिख रहा है. ऐसे में वो भी 'सवर्णों को साधने' की जुगत में लगे हैं.
बिहार में जाति की राजनीति होती रही है: बिहार में जाति के इर्द-गिर्द ही राजनीति होती रही है. राजनीतिक दल अपने-अपने ढंग सेसमीकरण भी गढ़ते रहे हैं. लालू प्रसाद एमवाई समीकरण के सहारे बिहार के राजनीति के धुरी बने रहे तो वहीं, नीतीश कुमार कोइरी-कुर्मी और अति पिछड़ा वोट बैंक के सहारे बीजेपी के साथ पिछले 16- 17 सालों से मुख्यमंत्री हैं. कभी कांग्रेस का वोट बैंक अपर कास्ट हुआ करता था. लेकिन अब अपर कास्ट बीजेपी का वोट बैंक माना जाता है लेकिन इस वोट बैंक पर RJD की अब नजर है. युवा नेता तेजस्वी यादव अपनी पार्टी को A TO Z बनाने में लगे हैं. बीजेपी से विशेषकर ब्राह्मण और भूमिहार की बढ़ती नाराजगी का लाभ उठाने में भी लगे हैं, आखिर बिहार में अपर कास्ट के वोट बैंक का सरकार बनाने में कितनी भूमिका है.
विकास की राजनीति पर लगा ग्रहाण: बिहार जातिवादी राजनीति के लिए हमेशा चर्चा में रहा है. सभी पार्टियां. जाति के आधार पर ही उम्मीदवारों के चयन से लेकर सरकार बनने में मंत्रियों तक के चुनाव में ख्याल रखा जाता है. कभी एमवाई समीकरण की बात करने वाली RJD अब एटूजेड की बात करने लगी है. मुस्लिम-यादव लालू का कुल वोट बैंक माना जाता रहा है लेकिन तेजस्वी यादव ने जब से मोर्चा संभाला है. भूमिहार और ब्राह्मणों पर भी नजर है. राजपूत पर तो पहले से आरजेडी की नजर रही है.
अपर कास्ट वोट सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण:अपर कास्ट वोट बैंक बीजेपी का माना जाता रहा है लेकिन बीजेपी से नाराजगी के कारण आरजेडी अपने पक्ष में इसे भुनाने में लगी है. बिहार में सरकार बनाने में अपर कास्ट वोट बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है. कभी इस वोट बैंक पर कांग्रेस का राज रहा है और लंबे समय तक कांग्रेस सरकार में भी रही लेकिन जैसे ही वोट बैंक बीजेपी में शिफ्ट किया है तब से कांग्रेस बिहार में अपनी पहचान खोजने में जुटी है. बिहार में सवर्ण यानी अपर कास्ट का वोट 17 से 20% के बीच है. सबसे अधिक वोट बैंक भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत का है इसके साथ कायस्थ का भी वोट है. भूमिहार- 4.7%, ब्राह्मण- 5.7%, राजपूत - 5.2%, कायस्थ - 1.5% राजधानी पटना की बात करें तो शहर में अधिकांश सीटों पर कायस्थों का ही कब्जा रहा है. इसी तरह अलग-अलग इलाके में कई सीटों पर भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूत अपना दबदबा दिखाते रहे हैं और जीत-हार का फैसला भी करते रहें हैं.
'बिहार के सियासी राजनीति में इन दिनों सवर्ण प्रेम बड़ा दिलचस्प मोड़ पर देखा जा रहा है. विधानसभा 2020 के चुनाव में जदयू को सवर्णों के विमुख होने से जो खामियाजा भुगतना पड़ा है. नीतीश कुमार को बड़ा झटका लगा है. एक तरफ आरजेडी सवर्णों को पटाने में लगी है. जदयू भी पीछे नहीं है. 1990 से बिहार में लालू और नीतीश कुमार के कालखंड में अगड़ी जाति के बजाय पिछड़ी जाति का वर्चस्व है और उनका बोलबाला है. कांग्रेस के जमाने में सरकार में सवर्णों की राजनीति चमकती थी लेकिन स्थितियां बदली है अब सरकार में शासन में सब जगह पिछड़ों का ही बोलबाला है. ऐसा लोग महसूस करते हैं लेकिन बिहार की राजनीति में सवर्णों के वोट का अपना अलग महत्व है.'- अरुण पांडे, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ
'पहले सवर्ण जातियां कांग्रेस के पाले में हुआ करती थी लेकिन मंडल कमीशन और मंडल की राजनीति के बाद अपर कास्ट सत्ता और शासन से दूर होते गए लेकिन वोट का महत्व है. 20% के आसपास उनका वोट है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव को लेकर आरजेडी ए टू जेड की बात करने लगी है तो ही जदयू में भी सवर्ण प्रकोष्ठ बनाया गया. जदयू महाराणा प्रताप की जयंती भी मनाती रही है और अभी हाल में भोजपुर में वीर कुंवर सिंह के कार्यक्रम में अमित शाह भी शामिल हुए थे. राजपूत वोट बैंक को लुभाने की कोशिश की जा रही है तो एक तरफ आरजेडी ए टू जेड के बहाने खासकर बोचहां उपचुनाव के बाद सवर्ण वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी है और इसके कारण बिहार में सवर्णों का प्रतिनिधित्व बढ़ने की उम्मीद है और यह बदलाव के संकेत हैं.' -अरुण पांडे, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ