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बिहार की सियासी खेती! किसानों का गुस्सा फूटा तो जवाब देना पड़ जाएगा मुश्किल

चौपट हो चुकी खेती का गुस्सा और जिंदगी की मजबूरी को अपने जमीर का चादर बनाए बिहार के किसान आज भी इस बेहतरी का इंतजार कर रहे हैं, शायद कोई नीति उनके लिए विकास दे जाए. पढ़ें यह विशेष रिपोर्ट...

bihar farmer
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Published : Jan 28, 2021, 2:08 PM IST

Updated : Jan 29, 2021, 2:15 PM IST

पटना :देश में चल रहे किसान आंदोलन और उसे बिहार में समर्थन देने के लिए राष्ट्रीय जनता दल के ऐलान के बाद भाजपा नेताओं की परेशानी बढ़ना लाजमी है. दअरसल, पंजाब लड़ाई पर उतरा है और बिहार की परेशानी यही है कि यहां का किसान अपनी जिंदगी जीने की परेशानियों से लड़ रहे हैं. ऐसे में अगर किसानों की भावना सरकार के विरोध में चल निकली तो किसानों को संभाल पाना बड़ा मुश्किल होगा.

लोकसभा में एनडीए को मिला भरपूर समर्थन

केंद्र में चल रही नरेंद्र मोदी की सरकार को बिहार ने अपने खाते से खूब दिया. भाजपा और जदयू के गठबंधन में लड़े गए लोकसभा चुनाव में 40 में से 39 सीटें एनडीए के पास हैं. ऐसे में बिहार के विकास की बात को हर कोई इसी सरकार से पूछ रहा है, लेकिन जवाब देने के बजाय सवालों का एक दूसरा मुद्दा जनता के सामने रख दिया जाता है.

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सुशील मोदी ने रैली नहीं निकालने की अपील की

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह और किसानों के आंदोलन ने देश में चल रही ब्रिटिश हुकूमत की पहले नीवें हिला दी थी और उसके बाद ब्रिटिश हुकूमत का खात्मा हो गया. सवाल यह है कि बिहार में होने वाले किसानों की रैली पर बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने राजद से अपील की कि किसानों के समर्थन में रैली-जुलूस ना निकालें. दिल्ली में इसका क्या हुआ, इससे बीजेपी का डरना लाजमी भी है.

चीनी मिल शुरू नहीं हो पाई

दरअसल, एनडीए गठबंधन की चल रही सरकार में अगर विकास की बात करें तो 2005 की कुछ बातों को याद करना भी जरूरी है. नीतीश कुमार जब गद्दी पर बैठे थे तो बिहार के विकास के लिए कई बड़ी-बड़ी बातें की गयी थी. उसमें खासतौर से खेती को बढ़ावा देने की योजना थी. जिसमें बिहार के आर्थिक संरचना की सबसे मजबूत पूंजी चीनी मिलों के तौर पर गन्ना उत्पादन से जुड़ी थी. बातें तो खूब की गई लेकिन चीनी मिल शुरू नहीं हो पाई.

'चीनी से लेकर चावल तक में परेशानी'

2020 में चीनी मिलों का पेराई सत्र चालू है. लेकिन बिहार की चीनी मिलें अभी भी बंद पड़ी हैं. सीतामढ़ी में रीगा चीनी मिल को लेकर लगातार किसान अपना विरोध जता रहे हैं, लेकिन फलाफल कुछ नहीं है. इस क्षेत्र में लगभग 100 करोड़ से ज्यादा की मूल्य की फसल खेतों में खड़ी है, लेकिन इसके लिए सरकार की कोई योजना नहीं है. पैक्स से धान की खरीद का जो लक्ष्य रखा गया है, वह भी अपने मूल आंकड़े से काफी पीछे है.

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'आत्मनिर्भर किसान और दोगुनी कमाई का वादा'

2013 में नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री की दावेदारी लिए राज्यों में घूम रहे थे, तो उन्होंने बड़े जोर-शोर से किसानों की कमाई का नारा दिया था. कहा था कि किसानों को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा जो वर्तमान में किसानों की कमाई है उसे दोगुना किया जाएगा. उसे करने के लिए देश के कृषि मंत्री बिहार के खाते से उठा कर डाल दिए और राधा मोहन सिंह को केंद्रीय कृषि मंत्री बना दिया गया.

'वादों की भीड़ में दबकर गुम हो गयी खेती'

नीतियों के तौर पर जो कुछ बिहार के खाते में पहुंचा उससे आज भी किसान अपनी मेड़ पर टकटकी लगाए बैठा है. उसके लिए वादों की कहानी तो जरूर आई, बस सहूलियत का पानी उसके खेत तक नहीं पहुंचा. दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण विद्युतीकरण योजना और 2 एकड़ तक के खेत रखने वाले किसानों को मुफ्त बिजली देने की बात मंच से तो जरूर हुई, लेकिन योजना इतनी सुस्त थी कि फसल पानी पाने से पहले ही मुरझा गई. किसानों की पूरी खेती ही राजनीतिक फसलों की खेती के वादों की भीड़ में दबकर गुम हो गई.

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'डबल इंजन सरकार से भी नहीं मिला लाभ'

2015 में नरेंद्र मोदी जब नीतीश कुमार से अलग होकर चुनाव लड़े तो बड़ी जोर से 'बिजली आई-बिजली आई' का नारा दिया गया. पढ़ाई, कमाई, दवाई बिहार के किसानों के लिए आएगा यह भी कहा गया. लेकिन आने के नाम पर सिर्फ वोट मांगने की बातें आई. किसान फिर खाली हाथ लिए बैठा रह गया. 2019 में नीतीश और नरेंद्र मोदी एक हुए तो बिहार ने फिर एक बार इस उम्मीद से हाथ मजबूत कर दिया कि दिल्ली और बिहार में डबल इंजन की सरकार हर गति को रफ्तार देगी. बिहार के लिए जो भी योजनाएं हैं वह पूरी हो जाएंगी. लेकिन यह सब कुछ सिर्फ वादों की भेंट चढ़ कर रह गया.

'दर्द तो है, बस मजबूत मंच नहीं'

चौपट हो चुकी खेती का गुस्सा और जिंदगी की मजबूरी को अपने जमीर का चादर बनाए किसान आज भी इस बेहतरी का इंतजार कर रहे हैं, शायद कोई नीति उनके लिए विकास दे जाए. अब दिल्ली के राजपथ पर सत्तासीनों ने किसानों के विकास को लेकर जिस मापदंड को अपना रखा है और किसान अपने आने वाली पीढ़ी के लिए जिस सरकारी कानून से लड़ रहा है, उसका विरोध तो हर किसान के मन में है. बस मंच मजबूती के साथ नहीं है.

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राजद बड़ी सोच के साथ बढ़ रहा है आगे

सैद्धांतिक राजनीति की लड़ाई सत्ता की लालच के साथ तो होती ही है, जो हर राजनीतिक दल करता है. राजद बिहार के किसानों को एकजुट और गोल बंद कर उनकी हक और हूकूक की लड़ाई के लिए मैदान खड़ा करने जा रहा है. उसके पीछे का भी मकसद साफ है कि अगर किसानों के साथ एक मजबूत राजनीतिक जमीन तैयार हो गई, उस पर लगने वाली फसल जब चुनाव में कटेगी तो नए परिणाम बहुत कुछ बदल देंगे.

'सड़क पर आए किसान तो होगी मुश्किल'

वैसे भी बिहार बदलाव के लिए जाना ही जाता रहा है. ब्रिटिश हुकूमत को बदल देना बिहार की सबसे बड़ी कहानी है. ऐसे में सरकारों को सोचना तो जरूर होगा कि किसान जिस बदहाली और फटे हाल में अपने को समेटे हुए हैं, अगर वह सड़क पर आ गये तो 15 साल की दुहाई देने वाली सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी. अपने खेत के लिए पानी, उत्पाद के लिए बाजार, पैदा हुए सामान के लिए खरीदार अगर किसान मांगनी शुरू कर दे तो नीतीश सरकार को जवाब देना मुश्किल पड़ जाएगा. दो शब्दों की सौगात अगर बिहार के किसानों ने नीतीश और बीजेपी से मांग लिया तो समझिए क्या होगा.

'मिट्टी खिसकते देर नहीं लगेगी'

बीजेपी का डर भी यही है, जिस किसान को अपना हथियार बना करके वह गद्दी तक पहुंची थी. अगर पंजाब की एक भी बात बिहार में पहुंच गई तो रही सही मिट्टी भी पैर के नीचे से खिसक जाएगी. किसानों के नाराज होने के बाद जिस राजनीति की खेती पर हल चलाकर फसल काटने में पिछले 15 सालों से नीतीश और एनडीए सफल रहा है उसकी पूरी बानगी ही भटक जाएगी.

सवाल पूछा गया तो जवाब देना होगा मुश्किल

हालांकि सुशील मोदी ने जो तर्क दिया है और राजनीतिक की विधा पर खेल रहे हैं, उसमें विधि व्यवस्था एक बड़ा मामला है. लेकिन सवाल यह भी उठ रहा है किसान अगर अपनी मांग को लेकर सड़क पर आता है तो पुलिस की लाठी चलाने के बजाय नीतीश सरकार के पास उपाय क्या है. सुशील मोदी जी इस बात को शायद बताना भूल गए.

बिहार में सवाल एक नहीं कई हैं, जिसका जवाब बिहार सरकार देना ही नहीं चाहती. किसान अपने खेत की मेड़ पर बैठा इस सवाल को पूछ रहा है.

सवाल नंबर 1. बिहार में कृषि रोड मैप बनाया गया लेकिन कृषि को किस मैप में रखा गया इसकी जानकारी देने वाला कोई नहीं है.

सवाल नंबर 2. बाढ़ में किसानों की फसल डूब कर बर्बाद हो गई. अभी तक सालों का मुआवजा किसानों को नहीं मिला है. कटाव के नाते घर-बार भी कट जा रहा है, लेकिन किसानों के खाते में सिर्फ नेताओं के वादे ही आते हैं. अगर जनता ने सड़क पर आकर जवाब मांग लिया तो बताने के लिए बिहार सरकार के पास कुछ नहीं है.

सवाल नंबर 3. बिहार सरकार ने मक्के की फसल के लिए बीज को बांटा, लेकिन जब दाने नहीं आए तो किसान फिर अपनी बदहाली लिए खेत की माटी को बदलने में लग गया. ऊपर की मिट्टी नीचे कर देंगे तो शायद दाने लग जाएं. लेकिन जिन लोगों ने किसानों का दाना खा लिया उन्हें आज तक सजा नहीं मिली, आखिर उसका क्या होगा?

सवाल नंबर 4. धान खरीद और राइस मिलों द्वारा किए गए बड़े घोटालों में किसानों की एक बड़ी पूंजी फंसी है. जिसे आज तक नहीं दी गयी. किसान मांग लिए तो नीतीश सरकार का क्या होगा?

सवाल नंबर 5. ग्रामीण विद्युतीकरण योजना से किसानों के खेतों पर पंप देने की योजना थी, लेकिन यह भी सरकारी फाइलों में दबकर रह गई. किसानों के इस सवाल का जवाब कौन देगा.

'काम जमीन पर करें ना कि हवा हवाई बात'

आग बढ़ते हैं, बिहार के लिए डर सिर्फ यह नहीं है कि उनका उत्पाद बिकेगा कहां? बिहार के लिए परेशानी तो यह भी है कि वह पैदावार करे कैसे? बाढ़ आती है तो सब कुछ डूबा ले जाती है, सूखा आता है तो पानी मिलता ही नहीं. इन परेशानियों से दो-चार हो रहे बिहार के किसानों के लिए भारत सरकार से सिर्फ यही उम्मीद है कि कुछ जमीनी हकीकत को राजनेता समझें और काम जमीन पर करें ना कि हवा हवाई बात और हेलीकॉप्टर से सर्वेक्षण. किसानों के सब कुछ लुट जाने के बाद किसानों के लिए एक नई योजना.

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कलई खुलने का है डर

ऐसे में सुशील मोदी जी का डरना लाजमी भी है. उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यही है कि किसानों ने 15 सालों से दर्द को अपने सीने में दबा रखा है. अगर वह कहीं बाहर आ गया तो सरकार की पूरी कलई ही खुल जाएगी. ऐसे में सुमो विपक्ष से मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा करने की राजनीतिक दुहाई तो दे रहे हैं, लेकिन जब उन्हें काम करना था तो इसी नैतिकता को शायद वह भूल गए थे.

'सोचिए, नहीं तो आने वाला समय ठीक नहीं'

बिहार के नेताओं को इस बात की जानकारी तो है कि अपने हक के लिए किसान बिहार में किस तरह लड़ते हैं. ब्रिटिश हुकूमत के निरंकुश होने के बाद भी चंपारण सत्याग्रह से शुरू हुए लड़ाई ने पूरे देश की तकदीर बदल दी, तस्वीर बदल दी. अगर किसान अपनी तकदीर बदलने पर उतरेगा तो कई किरदार सत्ता की गद्दी से किनारे कर दिए जाएंगे. इन नेताओं को समझ लेना चाहिए. किसान आंदोलन पर न उतरें आप कुछ ऐसा काम कर दीजिए. किसान आंदोलन की बजाय अपने मेहनत से पैदा होने वाली फसल और उससे अपने रुतबे का आनंद ले सकें, बजाय इसके किसी आंदोलन का हिस्सा बने. सोचना राजनेताओं को है, कुर्सी पर बैठे लोगों को है, नहीं सोचेंगे तो आने वाला समय उनके लिए ठीक नहीं होगा.

Last Updated : Jan 29, 2021, 2:15 PM IST

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