लखनऊ:Lok Sabha Election 2024:सीतापुर लोकसभा क्षेत्र को कभी कांग्रेस के दबदबे वाली सीट माना जाता था. यहां से पहला सांसद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भाभी रही थीं. जवाहरलाल नेहरू के चचेरे भाई श्यामलाल नेहरू की पत्नी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उमा नेहरू पहली बार 1952 में सीतापुर से सांसद बनी थीं.
इस सीट पर 1991 के बाद सबसे ज्यादा चार मौके भाजपा को ही मिले हैं. वहीं इस अवधि में बहुजन समाज पार्टी को दो बार और समाजवादी पार्टी को सिर्फ एक बार मौका मिला है. लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा प्रत्याशी राजेश वर्मा तीसरी बार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.
राजेश वर्मा 1999 में बसपा के टिकट पर भी चुनाव जीत चुके हैं. वहीं इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस नेता राकेश राठौर मैदान में होंगे. 2019 में बसपा प्रत्याशी रहे नकुल दुबे ने राजेश वर्मा को चुनौती दी थी. अनुमान लगाया जा रहा है कि इस चुनाव में भी रोचक मुकाबला होगा. हालांकि अभी बसपा का उम्मीदवार आना बाकी है.
सीतापुर संसदीय क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें, लहरपुर, बिसवां, सेवता, महमूदाबाद और सीतापुर आती हैं. इन पांच सीटों में चार पर भाजपा विधायक जीतकर आए थे. वहीं लहरपुर सीट पर सपा का कब्जा है. 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा का गठबंधन था और यह सीट बसपा के हिस्से में गई थी.
इसलिए भाजपा प्रत्याशी राजेश वर्मा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था. उन्हें 5,14,528 वोट मिले थे, जबकि बसपा प्रत्याशी से रूप में नकुल दुबे को 4,13,695 मत हासिल हुए थे. वहीं कांग्रेस की कैसर जहां को 96,018 वोट मिले थे. जीत का अंतर 1,00,833 मतों का रहा था.
यदि वोट शेयर की बात करें, तो भाजपा को कुल मतदान का 48.33 प्रतिशत, बसपा को 38.86 और कांग्रेस को 9.02 प्रतिशत रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी राजेश वर्मा को बसपा से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था. तब राजेश वर्मा को 4,17,546 वोट मिले थे, जबकि बसपा की कैसर जहां को 3,66,519. तब जीत का अंतर मात्र 51,027 रह गया था.
अतीत की बात करें, तो 1952 और 1957 में कांग्रेस पार्टी से उमा नेहरू और परागी लाल चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. तब संसद में 306 सीटें सामान्य श्रेणी वाली होती थीं और 86 सीटों पर दो-दो सांसद चुने जाते थे, जिनमें एक सामान्य और दूसरा अनुसूचित जाति से हुआ करता था.
उस वक्त आठ सीटें सिर्फ अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होती थीं, जहां सिर्फ एक-एक उम्मीदवार चुना जाता था. उत्तर प्रदेश में ऐसी 17 सीटें होती थीं, जहां से दो-दो सांसद चुनकर संसद पहुंचते थे. इनमें से एक सीतापुर सीट भी होती थी.
1957 के लोकसभा चुनावों के बाद यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई थी. 1962 और 1967 में इस सीट पर जनसंघ का कब्जा रहा. 1971 में कांग्रेस पार्टी और 1977 में जनता पार्टी ने इस सीट पर फतेह की थी. 1980, 1984 और 1989 में कांग्रेस पार्टी ने यहां अपना परचम लहराया, लेकिन उसके बाद से अब तक कांग्रेस को इस सीट से जीत नसीब नहीं हुई.
जातीय समीकरणों की बात करें, तो लगभग 25 लाख आबादी वाले इस संसदीय क्षेत्र में लगभग 82 प्रतिशत ग्रामीण और 18 फीसद शहरी आबादी आती है, जिसमें सोलह लाख से अधिक मतदाता है.
इस आबादी में सबसे अधिक 31 प्रतिशत दलित, 28 प्रतिशत ओबीसी (जिसमें सबसे अधिक कुर्मी), 18 प्रतिशत मुस्लिम और लगभग 23 प्रतिशत सवर्ण आबादी शामिल है. इस सीट से सबसे ज्यादा आठ बार ब्राह्मण उम्मीदवार जीतने में सफल हुए हैं.
वहीं दो बार मुस्लिम प्रत्याशियों को भी सफलता प्राप्त हुई है. कुर्मी, ब्राह्मण और दलित वोटरों की बदौलत पिछले दो चुनावों में भाजपा को भारी बढ़त मिली है. इस चुनाव में सपा और कांग्रेस गठबंधन में हैं और पूर्व विधायक राकेश राठौर गठबंधन के प्रत्याशी, ऐसे बसपा उम्मीदवार पर निर्भर करेगा कि यहां मुकाबला कैसा होगा. इस सीट पर जातीय समीकरण बहुत मायने रखते हैं.
सीमावर्ती लखीमपुर खीरी की तराई से सटे इस क्षेत्र में बारिश के दिनों कुछ नदियां कहर बरपाती हैं. यहां हर साल न सिर्फ करोड़ों रुपये की फसलें बर्बाद हो जाती हैं, बल्कि तमाम इमारतें और अन्य संपत्तियां बाढ़ की भेंट चढ़ जाती हैं.
बाढ़ नियंत्रण को लेकर अभी तक इस क्षेत्र में पर्याप्त काम नहीं हुआ है. लोग चाहते हैं कि तटबंध बनाकर इस समस्या का स्थाई समाधान किया जाए. बारिश के दिनों में चौका, घाघरा और शारदा नदियां इस क्षेत्र में इतना पानी ले आती हैं कि लाखों की आबादी के घरौंदे भी छिन जाते हैं. लगभग आधे संसदीय क्षेत्र से अधिक हिस्सा बाढ़ से प्रभावित रहता है. रोजगार और आधारभूत ढांचा दुरुस्त करने में भी अभी और काम करने की जरूरत है.
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