पटना : भारत की अजादी से लेकर अब तक भारत निर्माण में बिहार के कई सपूतों का बहुमूल्य योगदान रहा है, उन्हीं सपूतों में एक थे तत्कालीन शाहाबाद जिले के सपूत और बैरिस्टर डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा, जिनकी नए भारत के निर्माण में अहम भूमिका रही है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती संविधान निर्माण की थी. संविधान सभा के रास्ते में कई अवरोधों के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे. कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी ने बैरिस्टर डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा को संविधान सभा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया.
आचार्य कृपलानी ने सच्चिदानंद को बनाया संविधान सभा का अस्थाई अध्यक्ष
ब्रिटिश संसद ने सन् 1946 में भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा की. 9 दिसम्बर 1946 को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन हॉल में देश के हर क्षेत्र से निर्वाचित प्रतिनिधि एकत्र हुए. उनमें से ज्यादातर स्वाधीनता सेनानी थे. यह संविधान सभा का पहला दिन था. संविधान सभा बैठी और कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी ने संविधान सभा के अस्थाई अध्यक्ष के लिए डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा के नाम का प्रस्ताव रखा. इसके बाद सच्चिदानंद सिन्हा के नाम पर आम सहमति बन गयी. अध्यक्ष के आसन तक आदर के साथ पहुंचाने से पहले आचार्य कृपलानी ने उनके राजनीतिक जीवन और गौरवशाली कार्यों का परिचय दिया. तब सच्चिदानंद सिन्हा आसन पर बैठे.
अमेरिकी विधान पद्धति की ओर लोगों का दिलाया ध्यान
अध्यक्ष के रूप में सच्चिदानंद सिन्हा ने अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया से मिले शुभकामना संदेशों को पढ़कर सुनाया. अस्थाई अध्यक्ष चुने जाने को उन्होंने जीवन का सर्वोच्च सम्मान माना. संविधान निर्माण के लिए गठित प्रतिनिधि सभा को ही संविधान सभा कहते हैं. जिसे उन्होंने उदाहरण देकर समझाया. उन्होंने कहा कि यह सभा स्विस विधान का ध्यान से मनन करेगी. उसके बाद उन्होंने फ्रेंच नेशनल असेंबली का उल्लेख करते हुए अमेरिकी संविधान सभा के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि कनाडा स्टडी और दक्षिण अफ्रीका ने अमेरिकी संविधान को अपनाकर आदर्श बनाया. मुझे संदेह नहीं है कि आप भी और देशों की अपेक्षा अमेरिकी विधान पद्धति की ओर ध्यान देंगे. उन्होंने याद दिलाया कि संविधान सभा वयस्क मताधिकार के सिद्धांत पर चुनी जानी चाहिए.
18 साल की उम्र में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म 10 नवम्बर 1871 को महर्षि विश्वामित्र की धरती बक्सर के मुरार गांव में हुआ था. डॉ. सिन्हा के पिता बख्शी शिव प्रसाद सिन्हा डुमरांव महाराज के मुख्य तहसीलदार थे. डॉ.सिन्हा की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही विद्यालय में हुई. महज 18 साल की उम्र में 26 दिसम्बर 1889 को वह उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए. वहां तीन साल तक पढ़ाई की और सन् 1893 ई. में स्वदेश लौटे. इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में दस वर्ष तक बैरिस्टरी की प्रैक्टिस की. उन्होंने इंडियन पीपुल्स एवं हिन्दुस्तान रिव्यू नामक समाचार पत्रों का कई वर्षों तक सम्पादन किया.
खुदाबख्श लाइब्रेरी की भी जिम्मेदारी संभाली
इलाहाबाद हाई कोर्ट में कई साल तक प्रैक्टिस के दौरान 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा की मुलाकात जस्टिस खुदाबख़्श खान से हुई और वह उनसे जुड़ गए. जस्टिस खुदाबख्श खान छपरा के थे. उन्होंने पटना में 29 अक्टूबर 1891 में खुदाबख्श लाइब्रेरी खोली, जो भारत के सबसे प्राचीन पुस्तकालयों में एक है. सच्चिदानंद जस्टिस खुदाबख्श के काम में उनकी मदद करने लगे. जब जस्टिस खुदाबख्श खान का तबादला हैदराबाद के निजाम के उच्च न्यायालय में हुआ तो उनकी लाइब्रेरी का पूरा दारोमदार सिन्हा ने अपने कंधों पर ले लिया. उन्होंने 1894 से 1898 तक खुदाबख्श लाइब्रेरी के सेक्रेटरी की हैसियत से अपनी जिम्मेदारी को अंजाम दिया.
बिहार को बंगाल से अलग कराने में रही अहम भुमिका
बिहार को बंगाल से अलग कराने में भी सच्चिदानंद सिन्हा ने अहम भुमिका निभाई. इसके लिए उन्होंने सबसे बड़ा हथियार अखबार को बनाया. उन दिनों सिर्फ 'द बिहार हेराल्ड' अखबार था, जिसके एडिटर गुरु प्रसाद सेन थे. 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा ने 'द बिहार टाइम्स' के नाम से एक अंग्रेजी अखबार निकाला, जो 1906 के बाद 'बिहारी' के नाम से जाना गया. सच्चिदानंद सिन्हा कई सालों तक महेश नारायण के साथ इस अखबार के एडिटर रहे. इसी के जरिये उन्होंने अलग रियासत 'बिहार' के लिए मुहिम छेड़ी. उन्होंने हिन्दू-मुसलमान को 'बिहार' के नाम पर एक होने की लगतार अपील की. इनके अथक प्रयास के बाद 19 जुलाई 1905 को बिहार बंगाल से अलग हो गया.
पत्नी की याद में सिन्हा लाइब्रेरी की डाली बुनियाद
डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा ने अपनी पत्नी स्वर्गीया राधिका सिन्हा की याद में 1924 में सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद डाली. डॉ. सिन्हा ने इसकी स्थापना लोगों के मानसिक, बौद्धिक और शैक्षणिक विकास के लिए की थी. 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी के संचालन का जिम्मा उसे सौंप दिया. इस ट्रस्ट के सदस्यों में माननीय मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री, पटना विश्वविद्यालय के उप-कुलपति और उस समय के अन्य कई गणमान्य व्यक्ति आजीवन सदस्य बनाये गए. सच्चिदानंद सिन्हा के जरिये स्थापित लाइब्रेरी के कर्मचारी संजय कुमार बताते हैं कि डॉक्टर साहब लंदन बैरिस्टरी पढ़ने जाना चाहते थे. लेकिन उनके माता-पिता सात समंदर पार उन्हें नहीं भेजना चाहते थे. लेकिन वह अपनी जिद पर लंदन गए. जहां से लौटने के बाद उन्होंने सबसे पहले बंगाल को अलग कराया था.
6 मार्च 1950 को बिहार के इस महान सपूत का हुआ निधन
वहीं, समाजसेवी अनीश अंकुर ने कहा कि सच्चिदानंद सिन्हा के बदौलत ही अलग बिहार अस्तित्व में आया और जब वह बीमार रहने लगे थे, तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद खुद संविधान लेकर उनके आवास पर दस्तखत कराने पहुंचे थे. पत्रकार और लेखक अरुण सिंह ने कहा कि डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की विद्वता के चलते ही उन्हें संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया और संविधान निर्माण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई. सन् 1921 ई. में उन्होंने बिहार के अर्थ सचिव और कानून मंत्री के पद को सुशोभित किया. उसके बाद पटना विश्वविद्यालय में उप कुलपति के पद पर रहे. इस दौरान उन्होंने सूबे में शिक्षा को नया मोड़ दिया. 6 मार्च 1950 को भारत और खास कर बिहार के इस महान सपूत का निधन हो गया.